प्रकृति
कभी भी किसी से कोई भेदभाव नहीं करती और इसने सदैव ही इस धरा पर मानव-योनि
में जन्मे सभी मानव को एक नजर से देखा है. हालाँकि मानव ने समय - समय पर
अपनी सुविधानुसार दास-प्रथा, रंगभेद-नीति, सामंतवादी इत्यादि जैसी
व्यवस्थाओं के आधार पर मानव-शोषण की ऐसी कालिमा पोती है जो इतिहास के पन्नो
से शायद ही कभी धुले. समय बदला. लोगो ने ऐसी अत्याचारी व्यवस्थाओं के
विरुद्ध आवाज उठाई. विश्व के मानस पटल पर सभी मुनष्यों को मानवता का अधिकार
देने की बात उठी परिणामतः विश्व मानवाधिकार का गठन हुआ और वर्ष 1950 में
संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रत्येक वर्ष की 10 दिसंबर को विश्व मानवाधिकार
दिवस के रूप में मनाने का तय किया गया. मानवाधिकार के घोषणा-पत्र में साफ
शब्दों में कहा गया कि मानवाधिकार हर व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है ,जो
प्रशासकों द्वारा जनता को दिया गया कोई उपहार नहीं है तथा इसके मुख्य विषय
शिक्षा ,स्वास्थ्य ,रोजगार, आवास, संस्कृति ,खाद्यान्न व मनोरंजन
इत्यादि से जुडी मानव की बुनयादी मांगों से संबंधित होंगे.
1947 में भारत
का भूगोल बदला. पाकिस्तान के प्रणेता मुहमद अली जिन्ना को पाकिस्तान में
हिन्दुओं के रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी ऐसा उन्होंने अपने भाषण में भी कहा
था क्योंकि पाकिस्तानी- संविधान के अनुसार पाकिस्तान कोई मजहबी
इस्लामी देश नहीं है तथा विचार अभिव्यक्ति से लेकर धार्मिक स्वतंत्रता को
वहा के संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है इसके
साथ-साथ अभी हाल में ही इसी वर्ष मई के महीने में में राष्ट्रपति आसिफ
अली जरदारी द्वारा मानवाधिकार कानून पर हस्ताक्षर करने से वहा
एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कार्यरत है. भारतीयों को भी भारत में
मुस्लिमो के रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी. समय के साथ - साथ पाकिस्तान में
हिन्दुओ की जनसँख्या का प्रतिशत का लगातार घटता गया और इसके विपरीत भारत
में मुस्लिम-जनसँख्या का प्रतिशत लगातार बढ़ता गया. इसके कारण पर विवाद हो
सकता है परन्तु इसका एक दूसरा कटु पक्ष है. पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ
ने हिन्दुस्तान में शरण लेने के लिए पलायन शुरू किया जिसने विभाजन के
घावों को फिर से हरा कर दिया. पर कोई अपनी मातृभूमि व जन्मभूमि से पलायन
क्यों करता है यह अपने आप में एक गंभीर चिंतन का विषय है. क्योंकि मनुष्य
का घर-जमीन मात्र एक भूमि का टुकड़ा न होकर उसके भाव-बंधन से जुड़ा होता
है. परन्तु पाकिस्तान में आये दिन हिन्दू पर जबरन धर्मांतरण, महिलाओ का
अपहरण, उनका शोषण, इत्यादि जैसी घटनाए आम हो गयी है.
ध्यान देने
योग्य है कि अभी कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के
अध्यक्ष जेठानंद डूंगर मल कोहिस्तानी के अनुसार पिछले कुछ महीनों में
बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों से 11 हिंदू व्यापारियों सिंध प्रांत के
और जैकोबाबाद से एक नाबालिग लड़की मनीषा कुमारी के अपहरण से हिंदुओं में डर
पैदा हो गया है. वहा के कुछ टीवी चैनलों के साथ - साथ पाकिस्तानी अखबार डॉन
ने भी 11 अगस्त के अपने संपादकीय में लिखा कि ‘हिंदू समुदाय के अंदर
असुरक्षा की भावना बढ़ रही है' जिसके चलते जैकोबाबाद के कुछ
हिंदू परिवारों ने धर्मांतरण, फिरौती और अपहरण के डर से भारत जाने
का निर्णय किया है. पाकिस्तान हिन्दू काउंसिल के अनुसार वहां हर मास लगभग
20-25 लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराकर शादियां कराई जा रही हैं. यह संकट
तो पहले केवल बलूचिस्तान तक ही सीमित था, लेकिन अब इसने पूरे पाकिस्तान को
अपनी चपेट में ले लिया है. रिम्पल कुमारी का मसला अभी ज्यादा पुराना नहीं
है कि उसने साहस कर न्यायालय का दरवाजा तो खटखटाया, परन्तु वहा की उच्चतम
न्यायालय भी उसकी मदद नहीं कर सका और अंततः उसने अपना हिन्दू धर्म बदल
लिया. हिन्दू
पंचायत के प्रमुख बाबू महेश लखानी ने दावा किया कि कई हिंदू परिवारों ने
भारत जाकर बसने का फैसला किया है क्योंकि यहाँ की पुलिस अपराधियों द्वारा
फिरौती और अपहरण के लिए निशाना बनाए
जा रहे हिंदुओं की मदद नहीं करती है. इतना ही नहीं पाकिस्तान से भारत
आने के लिए 300 हिंदू और सिखों के समूह को पाकिस्तान ने अटारी-वाघा
बॉर्डर पर रोक कर सभी से वापस लौटने का लिखित वादा लिया गया. इसके बाद
ही इनमें से 150 को भारत आने दिया गया. पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ पर की
जा रही बर्बरता को देखते हुए हम मान सकते है कि विश्व-मानवाधिकार
पाकिस्तान में राह रहे हिन्दुओ के लिए नहीं है यह सौ प्रतिशत सच होता
हुआ ऐसा प्रतीत होता है. समय पर विश्व मानवाधिकार ने इस गंभीर समस्या
पर कोई संज्ञान नहीं लिया यह अपने आप में विश्व मानवाधिकार की कार्यप्रणाली
और उसके उद्देश्यों की पूर्ति पर ऐसा कुठाराघात है जिसे इतिहास कभी
नहीं माफ़ करेगा.
यह भारत की
बिडम्बना ही है कि अपने को पंथ-निरपेक्ष मानने वाले भारत के राजनेता और
मीडिया के लोग हिन्दू का प्रश्न आते ही क्रूरता का व्यवहार करने लग जाते
है. पाकिस्तान द्वारा हिन्दुओ पर हो रही ज्यादतियों पर संसद में सभी दलों
के नेताओ ने एक सुर में पाकिस्तान की आलोचना तो की जिस पर भारत के विदेश
मंत्री ने सदन को यह कहकर धीरज बंधाया कि वे इस मुद्दे पर पाकिस्तान से
बात करेंगे परन्तु पाकिस्तान से बात करना अथवा संयुक्त राष्ट्र में इस
मामले को उठाना तो दूर यूंपीए सरकार ने इस मसले को ही ठन्डे बसते में डाल
दिया और आज तक एक भी शब्द नहीं कहा. अगर यही मसला भारत में अथवा किसी अन्य
देशो में रह रहे मुसलमानों के साथ हुआ होता तो अब तक का परिदृश्य ही कुछ और
होता. खिलाफत - आन्दोलन और अलास्का को हम उदाहरण स्वरुप मान सकते है.
पाकिस्तान में न सही किन्तु भारत की संसद, सरकार , मीडिया के लोगो में तो
हिन्दू का बहुल्य ही है लेकिन अगर हम अपवादों को छोड़ दे तो शायद ही कभी
देखने-सुनने का ऐसा सुनहरा अवसर आया हो कि राजनेताओ, पत्रकारों अथवा कोई
हिन्दू संगठनो के समूह ने भारत सरकार पर हिन्दुओ के हितो की रक्षा के लिए
दबाव बनाया हो. एक तरफ जहा नेपाल सरकार द्वारा वहा घोषित हिन्दू-राष्ट्र
के खात्मे पर सभी पंथ-निरपेक्षियों ने उत्सव मनाया तो वही भूटान से
निष्कासित हिन्दुओ के विषय पर चूप्पी साध ली. इनसे कोकराझार और कश्मीर के
हिन्दुओ के हितो की बात करना तो दूर उन पर हो रहे अत्याचारों तक की बात
करना ही व्यर्थ है. तो क्या यह मान लिया जाय कि भारत के साथ
- साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान इत्यादि देशो में रहने वाले हिन्दू
अपने हिन्दू होने की सजा भुगत रहे है और उनके लिए मानवाधिकार की बात करना
मात्र एक छलावा है