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Tuesday, October 30, 2012

नीतिन गडकरी, रॉबर्ट वढेरा और भारत सरकार – मा. गो. वैद्य

इस विषय पर नहीं लिखना, ऐसा मैंने तय किया था. ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन’के नेता अरविंद केजरीवाल ने भाजपा के राष्‍ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी पर, एक विशेष पत्रपरिषद में जो आरोप किए, उस बारे में गत सप्ताह ही ‘भाष्य’में लेख आया था. ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’में भी उस बारे में विस्तारपूर्वक समाचार प्रकाशित हुआ था; ‘पीटीआय’ वृत्तसंस्था ने भी मेरा अभिप्राय लेकर समाचारपत्रों को भेजा था. लेकिन गडकरी पर नए आरोप किए गए है. वह किसी व्यक्ति ने या संगठन ने नहीं किए. वह कुछ प्रसार माध्यमों की करामत दिखती है. अच्छी बात है. ‘शोध पत्रकारिता’ यह पत्रकार जगत का एक खास भाग है. इस कारण उस माध्यम के विरुद्ध शिकायत करने का प्रयोजन नहीं.
अंतर
आश्‍चर्य इस बात का है कि, सरकार ने तुरंत इसकी दखल ली. ११ अगस्त २०१२ को मुसलमानों में के आतंवादियों ने सीधे पुलिस पर किए हमले की भी इतनी शीघ्रता से, केन्द्र सरकार ने, दखल लेने का समाचार नहीं. लेकिन गडकरी के विरुद्ध के आरोप मानो हमारे देश पर आई एक भीषण आपत्ति है, ऐसा मानकर सरकार ने उन आरोपों की शीघ्रता से दखल ली. कंपनी व्यवहार विभाग के मंत्री वीरप्पा मोईली ने कहा, ‘‘इस मामले की हम ‘डिस्क्रीट इन्क्वायरी’ करेंगे.’’ हमारी अंग्रेजी कुछ कमजोर है, इसलिए ‘डिस्क्रीट ’ शब्द का अर्थ अंग्रेजी शब्दकोश में देखा. वहॉं ‘डिस्क्रीट ’का ‘न्यायपूर्ण और समझदारीपूर्ण’ ऐसे अर्थ मिले. ठीक लगा. अनेक गंभीर विषयों पर मौन का आसरा लेने वाली हमारी इस सरकार को ‘न्याय’ और समझदारी से भी लगाव है, यह पता चला. लेकिन यह समाधान बहुत ही अल्पजीवी साबित हुआ. कारण, कॉंग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गॉंधी के दामाद रॉबर्ट वढेरा की जॉंच क्यों नहीं, ऐसा जब किसी ने मोईली से पूछा, तब उनका उत्तर था कि, वढेरा का मामला अलग है. और क्या या सही नहीं है? वढेरा सोनिया गॉंधी के दामाद है; और गडकरी नहीं. पल भर के लिए मान ले कि, नीतिन गडकरी सोनिया जी के दामाद होते, तो मोईली का विभाग इतनी शीघ्रता से सक्रिय होता? और क्या यह भी सच नहीं है कि, कहॉं वढेरा और कहॉं गडकरी? एक है केन्द्र मेंे की सत्तारूढ पार्टी के अध्यक्ष के सम्मानीय दामाद, तो दूसरे है विपक्ष के सामान्य अध्यक्ष!
डर किस बात का?
मैं केजरीवाल की बात समझ सकता हूँ. उन्हें अपनी नई पार्टी की प्रतिष्ठापना करनी है. विद्यमान राजनीतिक पार्टिंयॉं किस प्रकार दुर्गुणों से सनी है, यह बताने के लिए उन्होने कीचड़ उछालना स्वाभाविक मानना चाहिए. लेकिन कॉंग्रेस ने गडकरी से डरने का क्या कारण है? जेठमलानी की छटपटाहट समझी जा सकती है. वे बेचारे राज्य सभा के सामान्य सदस्य है. पार्टी के संगठन में या संसदीय दल में उन्हें विशेष स्थान नहीं. इसका कारण, गडकरी अध्यक्ष है, ऐसी उनकी गलतफहमी हो सकती है. और गडकरी ही फिर तीन वर्ष अध्यक्ष रहे, तो उनकी ऐसी ही दुदर्शा होती रहेगी, ऐसा उन्हें लगता हो तो इसमें अनुचित कुछ भी नहीं. लेकिन कॉंग्रेस क्यों अस्वस्थ हो रही है? बेताल बड़बड़ाने के लिए विख्यात कॉंग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने डरने का क्या कारण है? गनीमत है कि, उन्होंने कॉंग्रेस के महासचिव के नाते प्रधानमंत्री से गडकरी के मामले की जॉंच करने के लिए पत्र नहीं लिखा. वे कहते है, मैंने व्यक्तिगत रूप में वह पत्र लिखा है. लेकिन, दिग्विजय सिंह जी, सीधे प्रधानमंत्री को यह पत्र भेजने की क्या आवश्यकता थी? क्या यह पाकिस्तान या चीन ने भारत पर हमला करने जैसा गंभीर मामला है? और आपकी सरकार उसे गंभीरता से नहीं लेगी, ऐसा आपको लगता है? लेकिन दिग्विजय सिंह जैसे बेताल नेता को यह पूछने से कोई उपयोग नहीं. फिर भी, यह पूछा जा सकता है कि, २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रकुल क्रीड़ा घोटाला, कोयला बटँवारा घोटाला, वढेरा का घोटाला, इस बारे में आपने व्यक्तिगत स्तर पर ही सही, कोई पत्र भेजने की जानकारी नहीं. क्या गडकरी का आरोपित घोटाला, इनसब घोटालों से भयंकर है?
पक्षपाती सरकार
दि. २४ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विजयादशमी उत्सव समाप्त होते ही, प्रसार माध्यमों के प्रतिनिधि संघ के प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य से मिले, और उनसे गडकरी के तथाकथित घोटाले से संबंधित प्रश्‍न पूछा. उन्होंने उत्तर दिया कि, यह ‘मिडिया ट्रायल’ है. मतलब प्रसार माध्यमों ने शुरु किया मुकद्दमा. उन्होंने क्या गलत कहा? किसने खोज निकाला यह तथाकथित घोटाला? और किसने इस घोटाले को भरपूर कर प्रसिद्धि दी? प्रसारमाध्यमों ने ही! वढेरा का घोटाला सूचना अधिकार कानून से बाहर आया. अरविंद केजरीवाल ने सार्वजनिक रूप में उनके ऊपर आरोप किए है. क्या प्रतिक्रिया थी कॉंग्रेस की? सही कहे तो भारत सरकार की? स्वयं प्रधानमंत्री ने सूचना का अधिकार आकुंचित करने का मानस प्रकट किया. उन्होंने कहा, वह कायदा व्यक्ति के नीजि जीवन पर अतिक्रमण कर रहा है; उसे मर्यादा लगानी होगी. प्रधानमंत्री ने किए इस वक्तव्य को वढेरा के घोटाले – जो सूचना अधिकार कानून के माध्यम से प्रकट हुए – की पृष्ठभूमि थी. वह एक व्यक्ति का नीजि मामला था, तो फिर उनके बचाव के लिए सलमान खुर्शीद, पी. चिदंबरम्, अंबिका सोनी, जयंती नटराजन्, वीरप्पा मोईली, इन मंत्रियों ने दौैडकर आने का क्या कारण? वढेरा का मामला, वैसे तो कॉंग्रेस का भी मामला नहीं. एक नीजि व्यक्ति का मामला है. उनके लिए कॉंग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी और राजीव शुक्ला ने स्पष्टीकरण देने का क्या कारण? क्या गडकरी का पूर्ति उद्योग सरकारी उद्योग है? या भाजपा का उद्योग है? या, जिन्होंने सरकार से शिकायत कर जॉंच की मांग की है, वे उस उद्योग के भागधारक है? समाचारपत्रों में छपे समाचारों के आधार पर निर्णय लेने की अपेक्षा, सरकार ने पारित किये कानून से जो सामने आया है, और जो पहली नज़र में तो समर्थनीय लगता है, उस बारे में तुरंत निर्णय लेना उचित सिद्ध होता. लेकिन सरकार ने वह नहीं किया. विपरीत सरकार ने अपनी कृति से वह पक्षपाती है यह सिद्ध किया है.
जबाब दो
लेख के आरंभ में ही मैंने कहा है कि, इस विषय पर लिखने का मेरा विचार नहीं था. लेकिन २५ अक्टूबर को तीन चैनेल के प्रतिनिधि मुझसे मिलने घर आये थे. पहले ‘ई टीव्ही’वाले आये, फिर ‘आज तक’के और अंत में ‘एनडीटीव्ही’के. सब के प्रश्‍न गडकरी पर लगे आरोपों के बारे में थे. ‘एनडीटीव्ही’के प्रतिनिधि के आने तक मुझे, आयकर विभाग की जॉंच शुरू होने की जानकारी नहीं थी. वह जानकारी उन्होंने दी. मैंने कहा, हो जाने दो जॉंच. सरकारी कंपनी विभाग जॉंच करेगा, ऐसी जानकारी मिलने के बाद गडकरी लापता नहीं हुए या उन्होंने मौन भी धारण नहीं किया. उन्होंने कहा, अवश्य जॉंच करो. वढेरा की है ऐसा कहने की हिंमत? खुर्शीद-चिदंबरम् और अन्य मंत्रियों की है यह हिंमत? या मनीष तिवारी और कॉंग्रेस के दूसरे प्रवक्ताओं के मुँह से ऐसे हिम्‍मतपूर्ण शब्द क्यों नहीं निकलते? इस स्थिति में, वढेरा के विरुद्ध के आरोपों पर से जनता और प्रसार माध्यमों का ध्यान हटाने के लिए, किसी प्रसारमाध्यम को अपने साथ मिलाकर, कॉंग्रेस ने, गडकरी के विरुद्ध के तथाकथित आरोपों का ढिंढोरा पिटना शुरू किया है, ऐसा आरोप किसी ने किया तो उसे कैसे दोष दे सकते है? किसी चोरी का समर्थन करने के लिए, दूसरा भी चोर है, ऐसा चिल्ला चिल्ला कर बताना उचित है? दूसरा कोई चोर होगा, तो उसे सज़ा दो; लेकिन इससे पहला चोर निर्दोष कैसे सिद्ध होता है? कॉंग्रेस के प्रवक्ता, मोईली जैसे ज्येष्ठ नेता और दिग्विजय सिंह जैसे बेताल नेताओं ने इसका जबाब देना चाहिए.
मुझसे पूछे गए प्रश्‍न
दूरदर्शन चॅनेल वालों ने मुझे जेठमलानी के वक्तव्य के बारे में भी प्रश्‍न पूछे. मैंने कहा, ‘‘यह उनका व्यक्तिगत मत है. ऐसा मत रखने और उसे प्रकट करने का उन्हें अधिकार है. लेकिन गडकरी त्यागपत्र दे, ऐसा पार्टी का मत होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता. गडकरी ने किसी भी जॉंच के लिए तैयारी दिखाने पर स्वयं अडवाणी ने उनकी प्रशंसा की है; और भाजपा में जेठमलानी की अपेक्षा, अडवानी के मत को अधिक वजन है. श्रीमती सुषमा स्वराज ने भी, ऐसा ही प्रतिपादन किया है.’’
दूसरा प्रश्‍न पूछा गया कि, इन आरोपों के कारण, गडकरी का दुबारा पार्टी अध्यक्ष बनना कठिन हुआ है? मैंने उत्तर दिया, ‘‘मुझे ऐसा नहीं लगता. अपने पार्टी का संविधान कैसा हो, उसमें कब और क्या संशोधनकरे, यह उस पार्टी का प्रश्‍न है; और संविधान संशोधन यह क्या कोई अनोखी बात है? हमारे देश के महान् विद्वानों ने तैयार किए हमारे संविधान में गत ६५ वर्षों में सौ से अधिक संशोधन हुए है. पहला संशोधन तो संविधान पारित करने के एक वर्ष से भी कम समय में ही करना पड़ा था. भाजपा ने अपने अधिकार में संविधान संशोधन किया और गडकरी के पुन: अध्यक्ष बनने का रास्ता खुला किया, इसमें अन्य किसी ने आक्षेप लेने का क्या कारण है? और यह संविधान संशोधन केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए ही नहीं. सब पदाधिकारियों के लिए है.’’
बदनामी में ही दिलचस्वी
मैंने यह भी कहा कि, आपको जो गैरव्यवहार लगते है, उनका संबंध ठेकेदार म्हैसकर से है. किसी ने कहा है कि, गलत पते दिये है. मैंने पूछा, क्या पूर्ति उद्योग ने गलत पते दिये है? फिर जॉंच म्हैसकर की करो. लेकिन इसमें लोगों को दिलचस्वी होने का कारण नहीं. दिलचस्वी गडकरी को बदनाम करने में है. इसलिए यह सब भाग-दौड चल रही है. प्रकाशित हुए समाचारों से जानकारी मिलती है कि, म्हैसकर की कंपनी ने १६४ करोड़ रुपये कर्ज पूर्ति उद्योग समूह को दिया. उस कर्ज पर १४ प्रतिशत ब्याज लगा है. पूर्ति उद्योग ने उस कर्ज में से ८० करोड़ रुपयों का भुगतान, ब्याज के साथ किया है. यह कर्ज २००९ में दिया गया है. ऐसा मान ले कि, गडकरी ने सार्वजनिक निर्माण मंत्री रहते समय म्हैसकर को उपकृत किया था. लेकिन गडकरी का मंत्री पद १९९९ में ही गया. उस गठबंधन की सरकार ही नहीं रही. १३ वर्ष तक उन तथाकथित उपकारों की याद रखकर म्हैसकर ने यह कर्ज दिया, ऐसा जिसे मानना है, वह माने. लेकिन मेरे जैसे सामान्य बुद्धि के मनुष्य तो को इसमें कोई साठगॉंठ नहीं दिखती.
संघ के संबंध में
फिर मुझे संघ के संबंध में प्रश्‍न पूछा गया. इस बारे में संघ को क्या लगता है? मैंने उत्तर दिया, ‘‘संघ को कुछ लगने का संबंध ही कहा है? भाजपा अपना कारोबार देखने के लिए सक्षम है. स्वायत्त है. पार्टी को जो उचित लगेगा, वह निर्णय लेगी.’’ इस प्रश्‍न की पृष्ठभूमि, शायद २४ अक्टूबर के ’इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित समाचार की हो सकती है. उस समाचार में कहा गया है कि, २ और ४ नवंबर को चेन्नई में संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक है, उसमें इस मामले की चर्चा होगी. कार्यकारी मंडल की बैठक कब और कहॉं है, इसकी मुझे जानकारी नहीं थी. लेकिन मुझे निश्‍चित ऐसा लगता है कि, उस बैठक में इस मामले की चर्चा होने का कारण नहीं. तथापि संघ को इस विवाद में लपेटे बिना, कुछ लोगों का समाधान नहीं होगा. गुरुवार को झी चॅनेल के प्रतिनिधि ने दूरध्वनि कर, मुझे महाराष्ट्र प्रदेश कॉंग्रेस के अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे ने संघ पर लगाए आरोपों की जानकारी दी. मैंने सायंकाल सात बजे सह्याद्री चैनेल के समाचार सुने. उनमें माणिकराव के आरोपों का समाचार था. ठाकरे का आरोप है कि, गडकरी सार्वजनिक निर्माण मंत्री थे, उस समय उन्होंने, संघ के कार्यालय के भवन के लिए पैसे दिये. संघ के कार्यालय का कौनसा भवन? यह ठाकरे ने नहीं बताया. क्योंकि वे बता ही नहीं सकते. संघ कार्यालय का जो भवन महल भाग में है और जो डॉ. हेडगेवार भवन के नाम से प्रसिद्ध है, उसका निर्माण १९४६ में ही पूर्ण हुआ था. उस समय गडकरी का जन्म भी नहीं हुआ था. शायद माणिकराव का भी नहीं हुआ होगा. फिर इस पुराने भवन की कुछ पुनर्रचना की गई. वह २००६ में. उस समय गडकरी कहॉं मंत्री थे? रेशिमबाग में का नया निर्माण कार्य गत एक-दो वर्षों में का है. ठाकरे प्रदेश कॉंग्रेस कमेटी के अध्यक्ष इस जिम्मेदारी के पद पर है; उन्होंने अक्ल का ऐसा दिवालियापन प्रदर्शित करना ठीक नहीं. हॉं, यह संघ को भी इस विवाद में लपेटने का उनका, मतलब कॉंग्रेस का प्रयास हो सकता है. लेकिन वह सफल नहीं होगा. संघ को पैसा कौन देता है, यह नागपुर के समीप यवतमाल में जिंदगी गुजारने वाले माणिकराव को पता नहीं होगा, तो उनकीमूढता पर दया करना ही योग्य है. उन्हें उत्तर देना निरर्थक है.
तात्पर्य
तात्पर्य यह कि, भारत सरकार ने गडकरी पर लगे आरोपों के संदर्भ में जो तत्परता दिखाई, वैसी ही वढेरा पर लगे आरोपों के बारे में भी दिखाए. गडकरी जैसे जॉंच का सामना कर रहे है, वैसा ही वढेरा भी करे. जॉंच से भागना उन्हें शोभा नहीं देता, और सरकार ने उनका समर्थन करना तो सरकार को भी शोभा नहीं देता.

Monday, August 27, 2012

हिन्दू होने की सजा

प्रकृति कभी भी किसी से कोई भेदभाव नहीं करती और इसने सदैव ही इस धरा पर मानव-योनि  में जन्मे सभी मानव को एक नजर से देखा है. हालाँकि मानव ने समय - समय पर अपनी सुविधानुसार दास-प्रथा, रंगभेद-नीति, सामंतवादी इत्यादि जैसी व्यवस्थाओं के आधार पर मानव-शोषण की ऐसी कालिमा पोती है जो इतिहास के पन्नो से शायद ही कभी धुले. समय बदला. लोगो ने ऐसी अत्याचारी व्यवस्थाओं के विरुद्ध आवाज उठाई. विश्व के मानस पटल पर सभी मुनष्यों को मानवता का अधिकार देने की बात उठी परिणामतः विश्व मानवाधिकार का गठन हुआ और वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रत्येक वर्ष की 10 दिसंबर को विश्व मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाने का तय किया गया. मानवाधिकार के घोषणा-पत्र में साफ शब्दों में कहा गया कि मानवाधिकार हर व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है ,जो प्रशासकों द्वारा जनता को दिया गया कोई उपहार नहीं है तथा इसके मुख्य विषय शिक्षा ,स्वास्थ्य ,रोजगार, आवास, संस्कृति ,खाद्यान्न व मनोरंजन इत्यादि से जुडी मानव की बुनयादी मांगों से संबंधित होंगे.

1947 में भारत का भूगोल बदला. पाकिस्तान के प्रणेता मुहमद अली जिन्ना को पाकिस्तान में हिन्दुओं के रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी ऐसा उन्होंने अपने भाषण में भी कहा था क्योंकि पाकिस्तानी-  संविधान के अनुसार पाकिस्तान कोई मजहबी इस्लामी देश नहीं है तथा विचार अभिव्यक्ति से लेकर धार्मिक स्वतंत्रता को वहा के संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है इसके साथ-साथ अभी हाल में ही इसी  वर्ष मई के महीने में  में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी  द्वारा मानवाधिकार कानून पर हस्ताक्षर करने से वहा एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कार्यरत है. भारतीयों को भी भारत में मुस्लिमो के रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी. समय के साथ - साथ पाकिस्तान में हिन्दुओ की जनसँख्या का प्रतिशत का लगातार घटता गया और इसके विपरीत भारत में मुस्लिम-जनसँख्या का प्रतिशत लगातार बढ़ता गया.  इसके कारण पर विवाद हो सकता है परन्तु इसका एक दूसरा कटु पक्ष है. पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ ने हिन्दुस्तान में शरण लेने के लिए पलायन शुरू किया जिसने विभाजन के घावों को फिर से हरा कर दिया. पर कोई अपनी मातृभूमि व जन्मभूमि से पलायन क्यों करता है यह अपने आप में एक गंभीर चिंतन का विषय है. क्योंकि मनुष्य का घर-जमीन मात्र एक भूमि का टुकड़ा न होकर उसके भाव-बंधन से जुड़ा होता है. परन्तु पाकिस्तान में आये दिन हिन्दू पर जबरन धर्मांतरण, महिलाओ का अपहरण, उनका शोषण, इत्यादि जैसी घटनाए आम हो गयी है.


ध्यान देने योग्य है कि अभी कुछ दिन पहले ही  पाकिस्तान  हिंदू काउंसिल के अध्यक्ष जेठानंद डूंगर मल कोहिस्तानी के अनुसार पिछले कुछ महीनों में बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों से 11 हिंदू व्यापारियों सिंध प्रांत के और जैकोबाबाद से एक नाबालिग लड़की मनीषा कुमारी के अपहरण से हिंदुओं में डर पैदा हो गया है. वहा के  कुछ टीवी चैनलों के साथ - साथ पाकिस्तानी अखबार डॉन ने  भी 11 अगस्त के अपने संपादकीय में लिखा कि  ‘हिंदू समुदाय के अंदर असुरक्षा की भावना बढ़ रही है'  जिसके चलते जैकोबाबाद के कुछ हिंदू परिवारों ने धर्मांतरण, फिरौती और अपहरण के डर से भारत जाने का निर्णय किया है.  पाकिस्तान हिन्दू काउंसिल के अनुसार  वहां हर मास लगभग  20-25 लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराकर शादियां कराई जा रही हैं.  यह संकट तो पहले केवल बलूचिस्तान तक ही सीमित था, लेकिन अब इसने पूरे पाकिस्तान को अपनी चपेट में ले लिया है. रिम्पल कुमारी का मसला अभी ज्यादा पुराना नहीं है कि उसने साहस कर न्यायालय का दरवाजा  तो खटखटाया, परन्तु वहा की उच्चतम न्यायालय भी उसकी मदद नहीं कर सका और अंततः उसने अपना हिन्दू धर्म बदल लिया. हिन्दू पंचायत के प्रमुख बाबू महेश लखानी ने दावा किया कि कई हिंदू परिवारों ने भारत जाकर बसने का फैसला किया है क्योंकि यहाँ की  पुलिस अपराधियों द्वारा फिरौती और  अपहरण के लिए निशाना बनाए जा रहे हिंदुओं की मदद नहीं करती है. इतना ही नहीं पाकिस्तान से भारत आने के लिए 300 हिंदू और सिखों के समूह  को पाकिस्तान ने  अटारी-वाघा बॉर्डर पर रोक कर सभी से वापस लौटने का लिखित वादा लिया गया.  इसके बाद ही इनमें से 150 को भारत आने दिया गया. पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओ पर की जा रही बर्बरता को देखते हुए हम मान सकते है कि विश्व-मानवाधिकार पाकिस्तान में राह रहे हिन्दुओ के लिए नहीं है यह सौ प्रतिशत सच होता हुआ ऐसा प्रतीत होता है. समय पर विश्व मानवाधिकार ने इस गंभीर समस्या पर कोई संज्ञान नहीं लिया यह अपने आप में विश्व मानवाधिकार की कार्यप्रणाली और उसके उद्देश्यों की पूर्ति पर ऐसा कुठाराघात है जिसे  इतिहास कभी नहीं माफ़ करेगा.


यह भारत की बिडम्बना ही है कि अपने को पंथ-निरपेक्ष मानने वाले भारत के राजनेता और मीडिया के लोग हिन्दू का प्रश्न आते ही क्रूरता का व्यवहार करने लग जाते है. पाकिस्तान द्वारा हिन्दुओ पर हो रही ज्यादतियों पर संसद में सभी दलों के नेताओ ने एक सुर में पाकिस्तान की आलोचना तो की जिस पर भारत के विदेश मंत्री ने सदन को यह कहकर धीरज बंधाया कि वे इस  मुद्दे पर पाकिस्तान से बात  करेंगे परन्तु पाकिस्तान से बात करना अथवा संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को उठाना तो दूर यूंपीए सरकार ने इस मसले को ही ठन्डे बसते में डाल दिया और आज तक एक भी शब्द नहीं कहा. अगर यही मसला भारत में अथवा किसी अन्य देशो में रह रहे मुसलमानों के साथ हुआ होता तो अब तक का परिदृश्य ही कुछ और होता. खिलाफत - आन्दोलन और अलास्का को हम उदाहरण स्वरुप मान सकते है. पाकिस्तान में न सही किन्तु भारत की संसद, सरकार , मीडिया के लोगो में तो हिन्दू का बहुल्य ही है लेकिन अगर हम अपवादों को छोड़ दे तो शायद ही कभी देखने-सुनने का ऐसा सुनहरा अवसर आया हो कि राजनेताओ, पत्रकारों अथवा कोई हिन्दू संगठनो के समूह ने भारत सरकार पर हिन्दुओ के हितो की रक्षा के लिए दबाव बनाया हो. एक तरफ जहा  नेपाल सरकार द्वारा वहा घोषित हिन्दू-राष्ट्र के खात्मे पर सभी पंथ-निरपेक्षियों ने उत्सव मनाया तो वही भूटान से निष्कासित हिन्दुओ के विषय पर चूप्पी साध ली.  इनसे कोकराझार और कश्मीर के हिन्दुओ के हितो की बात करना तो दूर उन पर हो रहे अत्याचारों तक की बात करना ही व्यर्थ है. तो क्या यह मान लिया जाय कि भारत के साथ - साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान इत्यादि देशो में रहने वाले हिन्दू अपने हिन्दू होने की सजा भुगत रहे है और उनके लिए मानवाधिकार की बात करना मात्र एक छलावा है