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Wednesday, September 15, 2010

" RAHUL GANDHI MANAGEMENT FUNDAS FAILED "

 
राहुल गांधी को लोंच करने के लिए पिछले कुछ अर्से से एक अभियान चलाया जा रहा है । आजकल सारा मेनेजमैट का खेल है । कुछ लोगों को विश्वास है कि मैनजमैंट ठीक ढंग की हो तो गंजे को भी कंघी बेची जा सकती है। मैनजमेंट के हर अभियान का एक सीमित लक्ष्य होता है और उस लक्ष्य का प्राप्त करने के लिए एक सधी हुई रणनीति होती है । मैनजमैंट गुरू एसा मानते है कि यदि लक्ष्य स्पष्ट हो और रणनीति ठीक हो तो सफलता में संदेह नहीं है । भारत की राजनीति में राहुल गांधी को लेकर एक एसा ही प्रयोग करने में मैनजमैंट गुरू लगे हुए है। ऐसे प्रयोगों की एक और खासियत है कि मैनजमैंट के लोग पर्दे के पिछे होते है। और मंच पर स्थापति किये जाने वाले पात्र ही दिखाई देते हैं । दर्शकों को आसमान में पतंग ही दिखाई देता है पंतग की डोर खिचने वाला नीचे खड़ा आदमी दिखाई नहीं देता । इस नये प्रयोग का लक्ष्य अत्यन्त स्पष्ट है । सोनियां गाधी के पुत्र राहुल को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करना इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए बनाई गई रणनीति के अनुसार राहुल गांधी में ऐसे सभी गुण भरने होंगे जिनसे भ्रमित होकर देश के लोग उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लें । अब कहा जाता है कि यह देश युवाओं का देश है । जनंसख्या में युवा काअनुपात सर्वाधिक है । इसलिए जरूरी है कि राहुल को युवा नायक सिद्व किया जा सके । देश के युवाओं की दड़कन । इसी रणनीति के अनुरूप राहुल गांधी को देश के अनेक विश्वविद्यालयों ने विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करने के लिए निमंत्रित करना शुरू कर दिया । यह अलग बात है कि जहां एक और विश्वविद्यालयों से राजनीति को बाहर रखने की बात की जा रही है वहीं दूसरी और कांग्रेस पार्टी के अधिकारिक महासचिव राहुल गांधी को विश्वविद्यालयों में निमंत्रित किया जा रहा है । वहॉं राहुल गाधी क्या कहते है इस बात की कोई महत्ता नहीं है क्योंकि उनके पास विश्वविद्यालयों में पड़ने वाले बुद्वी जीवी स्तर के छात्रों को कहने के लिए बहुत कुछ है भी नहीं । अलबत्ता वहॉ पुलिस का ध्यान इस बात की और अवश्य लगा रहता है कि कोई छात्र चप्पल पहन कर तो नही आया । एक विश्वविद्यालय में सुरक्षा प्रबन्धकों ने चप्पल पहने विद्यार्थियों को राहुल गांधी का मार्गदर्शन प्राप्त करने से वंचित कर दिया सुरक्षा प्रबन्धकोंे को यकीन था कि जो लोग मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए जाते है, वे अक्सर जूते फैंक कर बाहर आते हैं । जूता खालने के लिए तो फिर भी समय लगता होगा चप्पल खोलने की तो जरूरत ही नहीं पड़ती । मैंनजमेंट गुरूओं को गुस्सा तो आ ही रहा होगा कि उनकी रणनीति को चप्पल की अशंका थोड़ा हलका कर सकती है । लेकिन यहॉं उनकी सहायता के लिए मीडिया का एक वर्ग तत्पर खड़ा दिखाई दे रहा है राहुल गांधी ने राह चलते पलासटिक की एक थैली उठाई और उसे साथ के डस्टबिन में डाल दिया एक चैनल को दिन भर के लिए प्रशसित गान हेतु अचानक सामग्री प्राप्त हो गई । वह सारा दिन गाता रहा । की राहुल गांधी के इस एक ही कृत्य ने देश भर के युवाओं में नई चेतना नई जान और नई प्ररेणा फूंक दी है । राहुल गांधी ने अपने इस कृत्य के माध्यम से देश के युवाओं को सीधा और स्पष्ट संदेश दे दिया है । और चैनल के अनुसार युवाओं ने भी इसे हाथों हाथ लपक लिया है । प्रयावरण की रक्षा का संकल्प मैनजमेंट गुरूओं के लिखे हुए स्क्रिप्ट के अनुसार ही राहुल गांधी बीचबीच में प्रधानमंत्री को मिलते है। और लगभग 80 बसंत देख चुके प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह का भी आर्थिक विषयों पर मार्गदर्शन करते हैं और बकोल मीडिया वे इस मार्ग दर्शन से अभीभूत होते भी दिखाई देते है। लेकिन स्क्रिपट में अनेक दिशाएं हैं राहुल गांधी को भी उन्हीं के अनुसार चलना पड़ता है । कभी किसी गांव के गरीब के घर रोटी खानी पड़ती है । एक आध रात किसी झोंपड़ी में सोना भी पड़ता है और कभी किसी दुखी जन को साथ लेकर थाने में जाना पड़ता है । और थानेदार को कहना पड़ता है कड़क अवाज में कि इसकी एफ0आई0आर0 दर्ज करो । मैंनजमेंट गुरूओं के अनुसार देश की युवतियों में राहुल गांधी के लोकप्रिय होने का एक और मुख्यकारण उनका परफेक्ट इलिजीबल बेचुलर होना है । मैनजमेंट गुरू इस बात को लेकर कतई परेशान नहीं है कि कभी राहुल गांधी से किसी स्थान पर किसी गंभीर विषय को लेकर कोई गंभीर बात भी करवा दी जाये । इस देश की समस्याएं क्या है, उनके मूल में क्या और उनका समाधान कैसे किया जा सकता है । इन विषयों पर उनका चिन्तन, यदि कोई है तो, लोगों के सामने लाया जाये । युवाओं में बरोजगारी को कैसे समाप्त किया जाये इस पर राहुल गांधी की क्या कार्य योजना है इस पर मैनजमेंट गुरू चुप है। बेरोजगारी खत्म हानी चाहिए, यह भाषण है, लेकिन यह कैसे खत्म होगी- यह चिन्तन है । मैंनजमेंट गुरू राहुल गाधी से भाषण तो दिलवाते है लेकिन चिंतन वाले मामले में आकर चुप हो जाते है। चिंतन पर शायद उनका स्‍वयं का भी विश्वास नहीं है । क्योंकि असली मैंनजमैंट तो वहीं है जो गंजे को कंघी बचे दे । यह काम धोखे और भ्रम से हो सकता । देश को राहुल गांधी की जरूरत है या नहीं है यह अलग प्रश्न है लेकिन मैनजमेंट गुरूओं की खुबी इसी में होगी यदि वे देश के लोगों को समझा सके कि राहुल गांधी के बिना इस देश का चलना मुश्किल है । यदि वे देश के लोगों को यह अभास दे सके कि सारा देश मानो राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की ही प्रतिक्षा कर रहा है । देश के युवाओं का तो मानों एक ही स्वपन है कि राहुल गांधी प्रधान मंत्री बने ।
मैनजमेंट गुरूओं को लगता था कि उन्होंने सारे देश में यह भ्रम पैदा कर दिया है और देश की युवा पड़ी एक मत से राहुल गांधी को अपना नायक मान चुकी है । उनकी इस सफलता को टेस्ट करने का पहला अवसर दिल्ली विश्वविद्यालय के 3 सितम्बर को हुए छात्र संघ चुनावों ने प्रदान किया । दिल्ली विश्वविद्यालय देश की युवा पढ़ी का प्रतिनिधि मान जा सकता है क्योंकि इसमें पूर्व उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक सभी राज्यों से छात्र पढ़ने के लिए आते है। फिर इस विश्वविद्यालय में जो चुनाव होते है। उसमें केवल विश्वविद्यालय परिसर के छात्र ही भाग नहीं लेते बल्कि दिल्ली प्रदेश के समस्त कॉलेजों के छात्र भी मतदान करते है। लगभग पिछले एक दशक से इस विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनावों में कांग्रेस के छात्र संगठन एन0एस0यू0आई0 का कब्जा रहा है । लेकिन इस बार इन चुनावों की पूरी बागडोर राहुल गांधी और उनके मैनजमेंट गुरूओं के हाथ में ही थी क्योंकि इस बार के चुनाव असाधारण थंे । राहुल गांधी प्रत्यक्ष चुनावों में सक्रिया रूचि ले रहे थे और यदि एन0एस0यू0आई0 जीत जाती तो मैनजेमैंट गुरूओं को अपनी पीठ थपथपाने का मौका तो मिलता ही साथ ही यह विशलेषण करने का अवसर मिल जाता कि इन चुनावों के माध्यम से देश की युवा पढ़ी ने राहुल गांधी के नेतृत्व में अपनी आस्था जताई है । इसलिए इस बार ऐरे गैरोंे के हाथ से एन0एस0यू0आई0 की कमान लेकर राहुल गांधी मैनजमैंट गुरू स्वय सारा मोर्चा सम्भाले हुए थे यहॉं तक की चुनाव में एन0एस0यू0आई के टिकट किस को दिये जाये इसका निर्णय फाउडेशन फार एडवांस मैनजमैंट फार इलेकश्न की देख रेख मेंकिया गया जिसके अध्यक्ष श्री जे0एम0लिगदो हैं ।
एन0एस0यू0आई0 ने छात्र संघ के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव और सहसचिव चारों पदों के लिए अपने प्रत्याशर उतारे । एन0एस0यू0 आई का मुकाबला अपने प्ररम्परागत प्रतिद्विंदी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से था । जैसे जैसे चुनाव प्रचार आगे बड़ता गया वैसे वैसे यह मुकाबला वस्तुतः राहुल गांधी बनाम विद्यार्थी परिषद में सीमटने लगा । एन0एस0यू0आई के लिए अपने बेनरों पर राहुल गांधी का चित्र लगाना एक अनिवार्य शर्त ही बन गई थी ।
लेकिन जैसा मैनजमेंट गुरू देश को विश्वास दिलाना चाहते थे कि राहुल गाधी को युवा पीढ़ी ने अपना नायक स्वीकार कर लिया है ऐसा करने में वे सफल नहीं हुए वे शायद यह मान कर चलते थे की टी0वी0 चैनलों में घुमते फिरते राहुल गांधी को देखकर देश की युवा पीढ़ी भ्रमित हो जायेगी परन्तु ऐसा भी नहीं हुआ इसे राहुल गांधी का दुर्भाग्य मानना चाहिए कि उनके मैनजमैंट गुरू देश के युवाओं को, खासकर विश्विद्यालय में पढने वाले युवाओं को विचार शून्य मान कर चल रहे थे । परन्तु ऐसा नहीं था युवा पीढ़ी में अभी भी धुन्ध की पीछे छीपे सत्य को पहचाने की शक्ति है देश की युवा पीढ़ी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनावों के माध्यम से इसे सिद्व कर दिखाया है । चुनाव में विधार्थी परिषद ने 4 में से 3 पद भारी बहुमत से जीत कर राहुल गांधी को लांच करने के अभियान की हवा निकाल दी है । विधार्थी परिषद के जितेन्द्र चैधरी एन0एस0यू0आई के प्रतिद्वन्दी से लगभग 2000 वोटों के अंतर से जीते । इसी प्रकार उपाध्यक्ष के लिए प्रिया दवास 1500 से भी ज्यादा अन्तर से जीती । सचिव के लिए नीतू देवास लगभग 5000 वाटों के अंतर से जीती । एन0एस0यू0आई को केवल सह सचिव के पद पर संतोष करना पड़ा । वहॉं भी उसका प्रत्याशी केवल 626 वोटों से जीत पाया । रिकार्ड के लिए सी0पी0एम0 की एस0एफ0आई और सी0पी0आई0 की ए0आई0एस0एफ0 भी चुनाव लड़ रही थी परन्तु मतदाताओं ने उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया । इन चुनावों के माध्यम से देश की युवा पीढ़ी ने यह स्पष्ट संदेश तो दे ही दिया है कि मैनजमैट गुरू अपनी रणनीतियों से कारपोरेट घरानों में तो उठा पठक कर सकते हैं । कुछ देर के लिए मीडिया की मदद से किसी के नेता होने का भ्रम भी पैदा कर सकते है। लेकिन राहुल गांधी को वे अपनी रणनीतियों से युवा नायक स्थापित नहीं कर सकते । क्योंकि युवा नायक होने का अर्थ है देश की मिट्टी में मिट्टी होना, देश के सांस्कृतिक रंग में सराबोर होना, संघर्ष के रहे युवा वर्ग की पीढ़ा को केवल जानना ही नहीं बल्कि उसे अपने ह्रदय के भीतर अनुभव करना । ध्यान रहे इस देश के युवा नायक खेत खलिहानों से निकलते हैं राज परिवारों से नहीं । मैनजमैंट गुरू राहुल गांधी के रूप में यही करना चाहते थे लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनावों ने इसका करारा जवाब भी दे दिया है , और मैनजमेंट गुरूओं को उनकी औकात भी बता दी है।

Thursday, September 2, 2010

आतंकवाद तो पहले ही काला है, इसे किसी और रंग में न रंगें

केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने आतंकवाद को ‘भगवा’ रंग से जोड़कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। जब जरूरत आतंकवाद से निपटने के उपायों को पुख्ता बनाने की और इसके विरोध में एक साथ खड़े होने की है तो गृहमंत्री शायद इसमें व्यस्त रहे कि पहले आतंकवाद का ‘प्रतीक रंग’ तय कर दिया जाए। पिछले सप्ताह नई दिल्ली में राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और पुलिस महानिरीक्षकों के तीन दिवसीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कह दिया कि हाल ही में हुए कई बम विस्फोटों से ‘भगवा आतंकवाद’ का नया स्वरूप सामने आया है। चिदम्बरम ने यह बात कह कर साम्प्रदायिक सौहाद्र्र कायम रखने के अपने ही सरकार के वादे को तोड़ने का प्रयास तो किया ही साथ ही अपनी पार्टी और सरकार को भी मुश्किल में डाल दिया। चिदम्बरम के इस बयान का विरोध सिर्फ विपक्ष ने ही नहीं बल्कि खुद उनकी पार्टी ने भी किया है। कांग्रेस ने साफ किया है कि आतंकवाद को भगवा रंग से जोड़ा जाना सही नहीं है क्योंकि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता है।
यह आश्चर्यजनक है कि चिदम्बरम की यह टिप्पणी उसी सम्मेलन में आई जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश की आंतरिक सुरक्षा और एकता के समक्ष विभिन्न प्रकार की चुनौतियों पर चिंता जताई थी। यह अपने आप में बड़ा विरोधाभास नहीं तो और क्या है कि प्रधानमंत्री तो अमन चैन कायम रखने पर जोर दें और गृहमंत्री ऐसा बयान दे डालें जिससे समुदायों के बीच खाई पैदा हो या फिर किसी समुदाय को हेय दृष्टि से देखा जाए। आतंकवाद को भगवा रंग से जोड़ने के चिदम्बरम के बयान को बतौर गृहमंत्री उनकी तीसरी बड़ी गलती भी कहा जा सकता है। इससे पहले वह पिछले वर्ष तेलंगाना मुद्दे पर जल्दबाजी दिखा कर केंद्र और राज्य सरकार के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर चुके थे। दूसरी गलती उन्होंने खुद नक्सलियों से निपटने में रणनीतिक विफलता की स्वीकारते हुए प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफा देने का प्रस्ताव पेश किया था। और अब तीसरी गलती जो उन्होंने की है उस पर भी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। अपने इस बयान से चिदम्बरम जहां समूचे संघ परिवार के निशाने पर आ गए हैं वहीं हिन्दू संगठनों को घेरने का बहाना ढूंढने वालों को एक ‘बढ़िया’ मौका मिल गया है।
जरा ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी की टाइमिंग देखिये। अगले माह संभवतः दूसरे सप्ताह में अयोध्या विवाद पर अदालत अपना फैसला सुना सकती है तो उसी माह चैथे सप्ताह के अंत में या फिर अक्तूबर की शुरुआत में बिहार में विधानसभा के चुनाव होने हैं। अयोध्या में रामजन्मभूमि पर राम मंदिर की मांग सीधे संघ परिवार और भाजपा से जुड़ी है तो बिहार में चुनावों पर भाजपा का काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है क्योंकि वह वहां सत्तारुढ़ गठबंधन में है। बिहार में जाहिर है चिदम्बरम की उक्त टिप्पणी से राजनीतिक गर्मी पैदा होगी। वहां कांग्रेस अपने आप को खड़ा करने के लिए मुख्य रूप से मुस्लिम मतों की ओर ताक रही है। साथ ही चिदम्बरम की इस टिप्पणी से वहां भाजपा के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी होंगी क्योंकि उसे एक तो खुद अपनी सहयोगी जद-यू से जूझना होगा जोकि सीटों के बंटवारे और नरेंद्र मोदी को बिहार में प्रचार के लिए नहीं आने देने को लेकर उस पर पहले से ही दबाव बनाए हुए है। दूसरा भाजपा को वहां इस मुद्दे पर विपक्ष के हमलों को भी झेलना होगा। लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख रामविलास पासवान और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने तो हिन्दू संगठनों पर पाबंदी लगाने की मांग कर ‘भगवा आतंकवाद’ को चुनावी मुद्दा बनाने के प्रबल संकेत भी दे दिए हैं। जाहिर है बिहार विधानसभा चुनावों की सरगर्मी बढ़ाने का काम गृहमंत्री की टिप्पणी ने भलीभांति कर दिया है।
लेकिन हमारे नेतागण शायद भूल रहे हैं कि आतंकवाद तो मुद्दा बन सकता है लेकिन आतंकवाद को कोई रंग देना या उसे किसी धर्म अथवा वर्ग विशेष से जोड़ना मुद्दा नहीं बन सकता। जब लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अफजल गुरु को चुनावी मुद्दा बनाया था तो इसे एक खास समुदाय के विरोध के तौर पर देखा गया लेकिन जनता ने इस मुद्दे की हवा निकाल दी। अब ऐसा ही कुछ ‘भगवा आतंकवाद’ के मुद्दे का भी हश्र हो सकता है। वैसे बात यहां इन मुद्दों के राजनीतिक हश्र होने अथवा नहीं होने की नहीं है, बात यह है कि इस बयान से हिन्दुओं की आस्था को चोट पहुंची है। हर हिन्दू संघी अथवा भाजपाई तो है नहीं, जो इसे राजनीतिक ‘तीर’ मान कर सह जाए और वार करने की अपनी बारी का इंतजार करे। आम लोगों के लिए धर्म राजनीति से परे होता है। यह बात राजनीतिज्ञों को क्यों नहीं समझ आती?
चिदम्बरम की छवि कुशल प्रशासक की रही है इसलिए ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी उनकी टिप्पणी पर हैरत होती है। उन जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ को यह पता होना चाहिए कि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता। हरा, नीला, भगवा, गुलाबी आदि रंगों से आतंकवाद को नहीं जोड़ा जा सकता। यदि आतंकवाद से किसी रंग को जोड़ने की बाध्यता ही है तो उसे काले रंग से जोड़ दें क्योंकि आतंकवाद जहां भी कहर बरपाता है वहां सिर्फ काला अध्याय ही छोड़ता है। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी करते समय चिदम्बरम के जेहन में क्यों सिर्फ साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और देवेंद्र गुप्ता के ही नाम आए? वह क्यों भूल गए पुणे धमाके के आरोपियों यासीन भटकल, रियाज भटकल और बंगलुरु धमाके के आरोपी मदनी को? यही नहीं गत सप्ताह कनाडा की पुलिस ने वहां की संसद को उड़ाने की साजिश का पर्दाफाश करते हुए जिन लोगों को पकड़ा है उनमें एक भारतीय भी है जिसका नाम है मिसबाहुद्दीन अहमद। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन नामों से उनके धर्मों को जोड़ना का मेरा अभिप्राय नहीं है। ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए। यह सभी उक्त लोग यदि आतंकवादी कृत्यों में शामिल हैं तो इन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए। लेकिन यह गलत होगा कि राजनीतिक अथवा अन्य कारणों से इन लोगों के चलते किसी धर्म विशेष पर निशाना साधा जाए या उसे कठघरे में खड़ा कर दिया जाए।
अमेरिका में 9/11 के बाद विश्व भर में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द चल निकला। यह शब्द उतना ही गलत है जितना कि ‘भगवा आतंकवाद’। ‘इस्लामिक आतंकवाद’, ‘भगवाकरण’, ‘भगवा आतंकवाद’ और ‘भगवा उत्पाती’ सही शब्द नहीं हैं। इनके प्रयोग से बचना चाहिए। आतंकवाद को किसी भी धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि आतंकवाद तथा आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। यदि वह लोग धर्म की दुहाई देकर अपने कार्यों को अंजाम देते हैं तो उस धर्म का उनसे बड़ा दुश्मन कोई नहीं है। क्योंकि एकाध लोगों की वजह से पूरे समुदाय को बदनाम होना पड़ता है। ऐसा ही कुछ ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी के बाद देखने को मिल रहा है।
इसके अलावा चिदम्बरम तथा अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता यह क्यों मान कर चल रहे हैं कि सारे हिन्दू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अथवा भाजपा से जुड़े हुए हैं और उन्हें निशाने पर लेने से सीधे भाजपा पर निशाना सध जाएगा? इसी प्रकार सभी हिन्दू संगठनों को भाजपा से जुड़ा हुआ कैसे मान लिया जाता है? जब मंगलौर में श्रीराम सेना ने वेलेंटाइन डे के विरोध में युवाओं को पीटा तो भाजपा पर राजनीतिक हमले हुए जबकि उस संगठन से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा ही गोवा के मरगांव विस्फोट मामले में संदेह के घेरे में आए अभिनव भारत और सनातन संस्था के मामले में भी भाजपा पर निशाना साधा गया जबकि खबरों के अनुसार, अभिनव भारत के लोगों से पूछताछ में यह पता चला था कि उनकी योजना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत की हत्या करने की भी थी। ऐसे में इस संगठन को कैसे भाजपा के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है? यह सही है कि भारत में भी कुछ कट्टरपंथी संगठन उभर रहे हैं जो हिंसा को माध्यम बना कर लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। लेकिन हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए कि वह संगठन हिन्दू हैं या मुसलमान या फिर कोई और। इनकी पहचान एकमात्र जिहादी संगठन के रूप में ही की जानी चाहिए।
भगवा रंग को आतंकवाद से जोड़ना एक प्रकार से हमारे राष्ट्रीय ध्वज का भी अपमान है जिसके तीन रंगों में से एक रंग भगवा अथवा केसरिया भी है। जो भगवा रंग जीवन के लिए महत्वपूर्ण सूर्योदय, अग्नि सहित भारतीय संस्कृति का भी प्रतीक है, उसे आतंकवाद के साथ यदि ‘राजनीतिक स्वार्थवश’ जोड़ा गया है तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति कोई और नहीं हो सकती।
जहां छोटे से छोटे मुद्दे को लेकर राजनीति होती है, वहां ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पर राजनीति कैसे नहीं होती। संसद में इस मुद्दे पर हुए हंगामे से यह साफ हो गया कि ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पकड़कर शीघ्र ही कई दल मुस्लिमों के बीच अपना वोट बैंक मजबूत करने के प्रयास करते दिखाई देंगे। यह कैसी विकट और विचित्र स्थिति है कि हमारे राजनीतिक दल यह मानकर चलते हैं कि ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द के प्रचार से मुस्लिम प्रसन्न होंगे। उन्हें यह पता होना चाहिए कि मुस्लिम भी जितने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के खिलाफ हैं उतने ही ‘भगवा आतंकवाद’ के भी। कई मुस्लिम सांसदों और विद्वानों ने ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पर आपत्ति जताई है। इसके अलावा देश में हुए विभिन्न विस्फोटों के बाद मुस्लिम समुदाय ने जिस प्रकार आतंकवाद के खिलाफ विरोध प्रकट कर देश की एकता बनाए रखने की बात कही, उसे किसी को भूलना नहीं चाहिए। लेकिन मुश्किल भरी बात यह है कि क्षुद्र राजनीति करने वाले दलों को सभी के ‘ब्रेन वाश’ की कला आती है जिसके बल पर वह राज करते रहे हैं।
बहरहाल, यदि चिदम्बरम हिन्दुओं की छवि कट्टरवादी की बनाना चाह रहे हैं, तो यही कहा जा सकता है कि वह गलत राह पर हैं। ‘भगवा आतंकवाद’ की बात कह कर उन्होंने सीमापार आतंकवाद, कश्मीर के बिगड़ते हालात, माओवादियों, नक्सलियों का बढ़ता आतंक, पूर्वोत्तर में उग्रवाद आदि गंभीर मुद्दों को बौना बनाने का प्रयास किया है। जो लोग कहते हैं हि ‘बांटो और राज करो’ की नीति अंग्रेजों के जमाने में थी वह गलत हैं क्योंकि यह किसी न किसी रूप में आज भी भारत में जारी है।

--sumit kumar