Pages

Tuesday, August 31, 2010

KYA HUM AJAAD BHARAT KE NAGRIK HAIN

भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी, ईसाई और वामपंथी आतंकवाद के सामने ‘भगवा आतंक’ का शिगूफा कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार चिदम्बरम और दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।

ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर चलकर ये लोग अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार हिन्दू संस्थाओं से जोड़ रहे हैं। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र और सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।

सच तो यह है कि आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते और गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं।

हिन्दू चिंतन में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्तो और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे ‘भगवा आतंक’ कहा जा रहा है।

कांग्रेस वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या विश्व हिन्दू परिषद और लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।

संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्तिपूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।

मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुध्द एवं प्रभावी लोगों को भी बुलाया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।

संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध ि‍(जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्राय: हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।

सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।

दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी कम्यूनिस्ट; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।

हिन्दू संगठनों की प्रेरणा हिन्दू धर्मग्रन्थ ही होते हैं; और किसी धर्मग्रन्थ में निरपराध लोगों की हत्या करने को नहीं कहा गया हैं। हां, अत्याचारी का वध जरूर होना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता का तो यही संदेश है; लेकिन दूसरी ओर इस्लाम, ईसाई या कम्युनिस्टों के मजहबी ग्रन्थों में अपने विरोधी को किसी भी तरह से मारना उचित कहा गया है। विश्‍व भर में फैली मजहबी हिंसा का कारण यही किताबें हैं। अधिकांश लोग इन्हें गलती से धर्मग्रन्थ कह देते हैं, जबकि ये मजहबी किताबें हैं।

संघ और वि.हि.परिषद का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है; और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बांटा और अब अगले बंटवारे के षडयन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।

इसलिए भगवा आतंक का शिगूफा केवल और केवल एक षड्यंत्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब भगवा आतंक का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यंत्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।

ram janam bhoomi a history

बाबर कोई मसीहा नहीं अत्याचारी, अनाचारी, आक्रमणकारी और इस देश के निवासियों का हत्यारा

सितम्बर में अयोध्या (अयुध्या, जहां कभी युद्ध न हो) के विवादित परिसर (श्रीराम जन्मभूमि ) के मालिकाना हक के संबंध में न्यायालय का फैसला आना है। जिस पर चारो और बहस छिड़ी है। फैसला हिन्दुओं के हित में आना चाहिए क्योंकि यहां राम का जन्म हुआ था। वर्षों से यहां रामलला का भव्य मंदिर था, जिसे आक्रांता बाबर ने जमींदोज कर दिया था। एक वर्ग चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि निर्णय मुसलमानों के पक्ष में होना चाहिए, क्योंकि वे बेचारे हैं, अल्पसंख्यक हैं। उनकी आस्थाएं हिन्दुओं की आस्थाओं से अधिक महत्व की हैं। मुझे इस वर्ग की सोच पर आश्चर्य होता है। कैसे एक विदेशी क्रूर आक्रमणकारी का मकबरा बने इसके लिए सिर पीट रहे हैं। एक बड़ा सवाल है – क्या अत्याचारियों की पूजा भी होनी चाहिए? क्या उनके स्मारकों के लिए अच्छे लोगों के स्मारक को तोड़ देना चाहिए? (कथित बाबरी मस्जिद रामलला के मंदिर को तोड़कर बनाई गई है।), क्या लोगों की हत्या करने वाला भी किसी विशेष वर्ग का आदर्श हो सकता है? (बुरे लोगों का आदर्श बुरा हो सकता है, लेकिन अच्छे लोगों का नहीं। रावण प्रकांड पंडित था, लेकिन बहुसंख्यक हिन्दु समाज का आदर्श नहीं। कंस बहुत शक्तिशाली था, लेकिन कभी हिंदुओं का सिरोधार्य नहीं रहा। हिन्दुओं ने कभी अत्याचारियों के मंदिर या प्रतीकों के निर्माण की मांग नहीं की है। फिर एक अत्याचारी और विदेशी का मकबरा इस देश में क्यों बनना चाहिए? क्यों एक वर्ग विशेष इसके लिए सिर पटक-पटक कर रो रहा है।)

इतिहास-बोध और राष्ट्रभावना का अभाव

काबुल-गांधार देश, वर्तमान अफगानिस्तान की राजधानी है। १० वीं शताब्दी के अंत तक गांधार और पश्चिमी पंजाब पर लाहौर के हिन्दूशाही राजवंश का राज था। सन् ९९० ईसवी के लगभग काबुल पर मुस्लिम तुर्कों का अधिकार हो गया। काबुल को अपना आधार बनाकर महमूद गजनवी ने बार-बार भारत पर आक्रमण किए। १६ वीं शताब्दी के शुरू में मध्य एशिया के छोटे से राज्य फरगना के मुगल (मंगोल) शासक बाबर ने काबुल पर अधिकार जमा लिया। वहां से वह हिन्दुस्तान की ओर बढ़ा और १५२६ में पानीपत की पहली लड़ाई विजयी होकर दिल्ली का मालिक बन गया। परन्तु उसका दिल दिल्ली में नहीं लगा। वही १५३० में मर गया। उसका शव काबुल में दफनाया गया। इसलिए उसका मकबरा वहीं है।

बलराज मधोक ने अपनी पुस्तक ‘जिन्दगी का सफर-२, स्वतंत्र भारत की राजनीति का संक्रमण काल’ में उल्लेख किया है कि वह अगस्त १९६४ में काबुल यात्रा पर गए। वहां उन्होंने ऐतिहासिक महत्व के स्थान देखे। संग्रहालयों में शिव-पार्वती, राम, बुद्ध आदि हिन्दू देवी-देवताओं और महापुरुषों की पुरानी पत्थर की मूर्तियां देखीं। इसके अलावा उन्होंने काबुल स्थित बाबर का मकबरा देखा। मकबरा ऊंची दीवार से घिरे एक बड़े आहते में स्थित था। परन्तु दीवार और मकबरा की हालत खस्ता थी। इसके ईदगिर्द न सुन्दर मैदान था और न फूलों की क्यारियां। यह देख बलराज मधोक ने मकबरा की देखभाल करने वाले एक अफगान कर्मचारी से पूछा कि इसके रखरखाव पर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया जाता? उसका उत्तर सुनकर बलराज मधोक अवाक् रह गए और शायद आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएं। उसने मधोक को अंग्रेजी में जवाब दिया था – “Damned foreigner why should we maintain his mausaleum.” अर्थात् कुत्सित विदेशी विदेशी के मकबरे का रखरखाव हम क्यों करें?

काबुल में वह वास्तव में विदेशी ही था। उसने फरगना से आकर काबुल पर अधिकार कर लिया था। परन्तु कैसी विडम्बना है कि जिसे काबुल वाले विदेशी मानते हैं उसे हिन्दुस्तानी के सत्ताधारी और कुछ पथभ्रष्ट बुद्धिजीवी हीरो मानत हैं और उसके द्वारा श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर तोड़कर बनाई गई कथित बाबरी मस्जिद को बनाए रखने में अपना बड़प्पन मानते हैं। इसका मूल कारण उनमें इतिहास-बोध और राष्ट्रभावना का अभाव होना है।

लगातार बाबर के वंशजों के निशाने पर रही जन्मभूमि :

पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गुट लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद ने पिछले कुछ वर्षों में करीब आठ बार रामलला के अस्थाई मंदिर पर हमले की योजना बनाई, जिन्हें नाकाम कर दिया गया। ५ जुलाई २००५ को तो छह आतंकवादी मंदिर के गर्भगृह तक पहुंच गए थे। जिन्हें सुरक्षा बलों ने मार गिराया।

--