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Saturday, December 25, 2010

                नये साल के लिए एक जनवरी ही क्यों !



एक जनवरी के नजदीक आते ही जगह-जगह हैप्पी न्यू ईयर के बैनर व होर्डिंग लगने लगते हैं। जश्न मनाने की तैयारियां प्रारम्भ हो जाती हैं। होटल, रेस्तरॉ, व पव इत्यादि अपने-अपने ढंग से इसके आगमन की तैयारियां करने लगते हैं। पोस्टर व कार्डों की भरमार के साथ दारू की दुकानों की भी चांदी कटने लगती है। कहीं कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाऐं दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मनुष्य- मनुष्यों से तथा गाड़ियां गाडियों से भिडने लगते हैं। रात-रात भर जाग कर नया साल मनाने से ऐसा प्रतीत होता है मानो सारी खुशियां एक साथ आज ही मिल जायेंगी। हम भारतीय भी पश्चिमी अंधानुकरण में इतने सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सभी सांस्क्रतिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे बैठते हैं। पता ही नहीं लगता कि कौन अपना है और कौन पराया।
जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अग्रेंजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से प्रारम्भ होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी। ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छः माह यानि जनवरी से जून रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये। जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गये अन्यथा कोई भी दो मास 31 दिनों या लगातार बराबर दिनों की संख्या वाले नहीं हैं।
ईसा से 753 वर्ष पहले रोम नगर की स्थापना के समय रोमन संवत् प्रारम्भ हुआ जिसके मात्र दस माह व 304 दिन होते थे। इसके 53 साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे 355 दिनों का बना दिया। ईसा के जन्म से 46 वर्ष पहले जूलियस सीजन ने इसे 365 दिन का बना दिया। सन् 1582 ई. में पोप ग्रेगरी ने आदेश जारी किया कि इस मास के 04 अक्टूबर को इस वर्ष का 14 अक्टूबर समझा जाये। आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् नवम्बर 1952 में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गयी। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी। किन्तु, तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कलेण्डर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कलेण्डर के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
ग्रेगेरियन कलेण्डर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3579 वर्ष, रोम की 2756 वर्ष यहूदी 5767 वर्ष, मिस्त्र की 28670 वर्ष, पारसी 198874 वर्ष तथा चीन की 96002304 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गयी है।
जिस प्रकार ईस्वी सम्वत् का सम्बन्ध ईसा जगत से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मुहम्मद साहब से है। किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमशः 45 व 15 में विस्तार से दिया गया है। विश्व में सौर मण्डल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं।
इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारम्भ करने की बात हो, सभी में हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं। और तो और, देश के बडे से बडे़ राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतजार करते हैं जो कि विशुद्ध रूप से विक्रमी संवत् के पंचांग पर आधारित होता है। भारतीय मान्यतानुसार कोई भी काम यदि शुभ मुहूर्त में प्रारम्भ किया जाये तो उसकी सफलता में चार चांद लग जाते हैं। वैसे भी भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हर्ष व उल्लास जगाते हुए एक सही दिशा प्रदान करते हैं उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देश प्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे़ हुए हैं। यह वह दिन है जिस दिन से भारतीय नव वर्ष प्रारम्भ होता है। आईये, इस दिन की महानता के प्रसंगों को देखते हैं -
ऐतिहासिक महत्व
1       यह दिन सृष्टि रचना का पहला दिन है। इस दिन से एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की।
2       विक्रमी संवत का पहला दिन: उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होता था जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो, और न ही कोई भिखारी हो। साथ ही राजा चक्रवर्ती सम्राट भी हो। सम्राट विक्रमादित्य ने 2067 वर्ष पहले इसी दिन राज्य स्थापित किया था।
3       प्रभु श्री राम का राज्याभिषेक दिवस : प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में राज्याभिषेक के लिये चुना।
4       नवरात्र स्थापना : शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन।
5       गुरू अंगददेव प्रगटोत्सव : सिख परंपरा के द्वितीय गुरू का जन्म दिवस।
6       आर्य समाज स्थापना दिवस : समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना।
7       संत झूलेलाल जन्म दिवस : सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए।
8       शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस : विक्रमादित्य की भांति शालिनवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
9       युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन : 5112 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।
10    डा0 केशव राव बलीराम हैडगेबार जन्म दिवस : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक थे।

प्राकृतिक महत्व
1     वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है।
2     फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
3     नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।
क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके। आइये! विदेशी को फैंक स्वदेशी अपनाऐं और गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानि विक्रमी संवत् को ही मनायें तथा इसका अधिक से अधिक प्रचार करें।

Wednesday, September 15, 2010

" RAHUL GANDHI MANAGEMENT FUNDAS FAILED "

 
राहुल गांधी को लोंच करने के लिए पिछले कुछ अर्से से एक अभियान चलाया जा रहा है । आजकल सारा मेनेजमैट का खेल है । कुछ लोगों को विश्वास है कि मैनजमैंट ठीक ढंग की हो तो गंजे को भी कंघी बेची जा सकती है। मैनजमेंट के हर अभियान का एक सीमित लक्ष्य होता है और उस लक्ष्य का प्राप्त करने के लिए एक सधी हुई रणनीति होती है । मैनजमैंट गुरू एसा मानते है कि यदि लक्ष्य स्पष्ट हो और रणनीति ठीक हो तो सफलता में संदेह नहीं है । भारत की राजनीति में राहुल गांधी को लेकर एक एसा ही प्रयोग करने में मैनजमैंट गुरू लगे हुए है। ऐसे प्रयोगों की एक और खासियत है कि मैनजमैंट के लोग पर्दे के पिछे होते है। और मंच पर स्थापति किये जाने वाले पात्र ही दिखाई देते हैं । दर्शकों को आसमान में पतंग ही दिखाई देता है पंतग की डोर खिचने वाला नीचे खड़ा आदमी दिखाई नहीं देता । इस नये प्रयोग का लक्ष्य अत्यन्त स्पष्ट है । सोनियां गाधी के पुत्र राहुल को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करना इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए बनाई गई रणनीति के अनुसार राहुल गांधी में ऐसे सभी गुण भरने होंगे जिनसे भ्रमित होकर देश के लोग उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लें । अब कहा जाता है कि यह देश युवाओं का देश है । जनंसख्या में युवा काअनुपात सर्वाधिक है । इसलिए जरूरी है कि राहुल को युवा नायक सिद्व किया जा सके । देश के युवाओं की दड़कन । इसी रणनीति के अनुरूप राहुल गांधी को देश के अनेक विश्वविद्यालयों ने विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करने के लिए निमंत्रित करना शुरू कर दिया । यह अलग बात है कि जहां एक और विश्वविद्यालयों से राजनीति को बाहर रखने की बात की जा रही है वहीं दूसरी और कांग्रेस पार्टी के अधिकारिक महासचिव राहुल गांधी को विश्वविद्यालयों में निमंत्रित किया जा रहा है । वहॉं राहुल गाधी क्या कहते है इस बात की कोई महत्ता नहीं है क्योंकि उनके पास विश्वविद्यालयों में पड़ने वाले बुद्वी जीवी स्तर के छात्रों को कहने के लिए बहुत कुछ है भी नहीं । अलबत्ता वहॉ पुलिस का ध्यान इस बात की और अवश्य लगा रहता है कि कोई छात्र चप्पल पहन कर तो नही आया । एक विश्वविद्यालय में सुरक्षा प्रबन्धकों ने चप्पल पहने विद्यार्थियों को राहुल गांधी का मार्गदर्शन प्राप्त करने से वंचित कर दिया सुरक्षा प्रबन्धकोंे को यकीन था कि जो लोग मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए जाते है, वे अक्सर जूते फैंक कर बाहर आते हैं । जूता खालने के लिए तो फिर भी समय लगता होगा चप्पल खोलने की तो जरूरत ही नहीं पड़ती । मैंनजमेंट गुरूओं को गुस्सा तो आ ही रहा होगा कि उनकी रणनीति को चप्पल की अशंका थोड़ा हलका कर सकती है । लेकिन यहॉं उनकी सहायता के लिए मीडिया का एक वर्ग तत्पर खड़ा दिखाई दे रहा है राहुल गांधी ने राह चलते पलासटिक की एक थैली उठाई और उसे साथ के डस्टबिन में डाल दिया एक चैनल को दिन भर के लिए प्रशसित गान हेतु अचानक सामग्री प्राप्त हो गई । वह सारा दिन गाता रहा । की राहुल गांधी के इस एक ही कृत्य ने देश भर के युवाओं में नई चेतना नई जान और नई प्ररेणा फूंक दी है । राहुल गांधी ने अपने इस कृत्य के माध्यम से देश के युवाओं को सीधा और स्पष्ट संदेश दे दिया है । और चैनल के अनुसार युवाओं ने भी इसे हाथों हाथ लपक लिया है । प्रयावरण की रक्षा का संकल्प मैनजमेंट गुरूओं के लिखे हुए स्क्रिप्ट के अनुसार ही राहुल गांधी बीचबीच में प्रधानमंत्री को मिलते है। और लगभग 80 बसंत देख चुके प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह का भी आर्थिक विषयों पर मार्गदर्शन करते हैं और बकोल मीडिया वे इस मार्ग दर्शन से अभीभूत होते भी दिखाई देते है। लेकिन स्क्रिपट में अनेक दिशाएं हैं राहुल गांधी को भी उन्हीं के अनुसार चलना पड़ता है । कभी किसी गांव के गरीब के घर रोटी खानी पड़ती है । एक आध रात किसी झोंपड़ी में सोना भी पड़ता है और कभी किसी दुखी जन को साथ लेकर थाने में जाना पड़ता है । और थानेदार को कहना पड़ता है कड़क अवाज में कि इसकी एफ0आई0आर0 दर्ज करो । मैंनजमेंट गुरूओं के अनुसार देश की युवतियों में राहुल गांधी के लोकप्रिय होने का एक और मुख्यकारण उनका परफेक्ट इलिजीबल बेचुलर होना है । मैनजमेंट गुरू इस बात को लेकर कतई परेशान नहीं है कि कभी राहुल गांधी से किसी स्थान पर किसी गंभीर विषय को लेकर कोई गंभीर बात भी करवा दी जाये । इस देश की समस्याएं क्या है, उनके मूल में क्या और उनका समाधान कैसे किया जा सकता है । इन विषयों पर उनका चिन्तन, यदि कोई है तो, लोगों के सामने लाया जाये । युवाओं में बरोजगारी को कैसे समाप्त किया जाये इस पर राहुल गांधी की क्या कार्य योजना है इस पर मैनजमेंट गुरू चुप है। बेरोजगारी खत्म हानी चाहिए, यह भाषण है, लेकिन यह कैसे खत्म होगी- यह चिन्तन है । मैंनजमेंट गुरू राहुल गाधी से भाषण तो दिलवाते है लेकिन चिंतन वाले मामले में आकर चुप हो जाते है। चिंतन पर शायद उनका स्‍वयं का भी विश्वास नहीं है । क्योंकि असली मैंनजमैंट तो वहीं है जो गंजे को कंघी बचे दे । यह काम धोखे और भ्रम से हो सकता । देश को राहुल गांधी की जरूरत है या नहीं है यह अलग प्रश्न है लेकिन मैनजमेंट गुरूओं की खुबी इसी में होगी यदि वे देश के लोगों को समझा सके कि राहुल गांधी के बिना इस देश का चलना मुश्किल है । यदि वे देश के लोगों को यह अभास दे सके कि सारा देश मानो राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की ही प्रतिक्षा कर रहा है । देश के युवाओं का तो मानों एक ही स्वपन है कि राहुल गांधी प्रधान मंत्री बने ।
मैनजमेंट गुरूओं को लगता था कि उन्होंने सारे देश में यह भ्रम पैदा कर दिया है और देश की युवा पड़ी एक मत से राहुल गांधी को अपना नायक मान चुकी है । उनकी इस सफलता को टेस्ट करने का पहला अवसर दिल्ली विश्वविद्यालय के 3 सितम्बर को हुए छात्र संघ चुनावों ने प्रदान किया । दिल्ली विश्वविद्यालय देश की युवा पढ़ी का प्रतिनिधि मान जा सकता है क्योंकि इसमें पूर्व उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक सभी राज्यों से छात्र पढ़ने के लिए आते है। फिर इस विश्वविद्यालय में जो चुनाव होते है। उसमें केवल विश्वविद्यालय परिसर के छात्र ही भाग नहीं लेते बल्कि दिल्ली प्रदेश के समस्त कॉलेजों के छात्र भी मतदान करते है। लगभग पिछले एक दशक से इस विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनावों में कांग्रेस के छात्र संगठन एन0एस0यू0आई0 का कब्जा रहा है । लेकिन इस बार इन चुनावों की पूरी बागडोर राहुल गांधी और उनके मैनजमेंट गुरूओं के हाथ में ही थी क्योंकि इस बार के चुनाव असाधारण थंे । राहुल गांधी प्रत्यक्ष चुनावों में सक्रिया रूचि ले रहे थे और यदि एन0एस0यू0आई0 जीत जाती तो मैनजेमैंट गुरूओं को अपनी पीठ थपथपाने का मौका तो मिलता ही साथ ही यह विशलेषण करने का अवसर मिल जाता कि इन चुनावों के माध्यम से देश की युवा पढ़ी ने राहुल गांधी के नेतृत्व में अपनी आस्था जताई है । इसलिए इस बार ऐरे गैरोंे के हाथ से एन0एस0यू0आई0 की कमान लेकर राहुल गांधी मैनजमैंट गुरू स्वय सारा मोर्चा सम्भाले हुए थे यहॉं तक की चुनाव में एन0एस0यू0आई के टिकट किस को दिये जाये इसका निर्णय फाउडेशन फार एडवांस मैनजमैंट फार इलेकश्न की देख रेख मेंकिया गया जिसके अध्यक्ष श्री जे0एम0लिगदो हैं ।
एन0एस0यू0आई0 ने छात्र संघ के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव और सहसचिव चारों पदों के लिए अपने प्रत्याशर उतारे । एन0एस0यू0 आई का मुकाबला अपने प्ररम्परागत प्रतिद्विंदी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से था । जैसे जैसे चुनाव प्रचार आगे बड़ता गया वैसे वैसे यह मुकाबला वस्तुतः राहुल गांधी बनाम विद्यार्थी परिषद में सीमटने लगा । एन0एस0यू0आई के लिए अपने बेनरों पर राहुल गांधी का चित्र लगाना एक अनिवार्य शर्त ही बन गई थी ।
लेकिन जैसा मैनजमेंट गुरू देश को विश्वास दिलाना चाहते थे कि राहुल गाधी को युवा पीढ़ी ने अपना नायक स्वीकार कर लिया है ऐसा करने में वे सफल नहीं हुए वे शायद यह मान कर चलते थे की टी0वी0 चैनलों में घुमते फिरते राहुल गांधी को देखकर देश की युवा पीढ़ी भ्रमित हो जायेगी परन्तु ऐसा भी नहीं हुआ इसे राहुल गांधी का दुर्भाग्य मानना चाहिए कि उनके मैनजमैंट गुरू देश के युवाओं को, खासकर विश्विद्यालय में पढने वाले युवाओं को विचार शून्य मान कर चल रहे थे । परन्तु ऐसा नहीं था युवा पीढ़ी में अभी भी धुन्ध की पीछे छीपे सत्य को पहचाने की शक्ति है देश की युवा पीढ़ी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनावों के माध्यम से इसे सिद्व कर दिखाया है । चुनाव में विधार्थी परिषद ने 4 में से 3 पद भारी बहुमत से जीत कर राहुल गांधी को लांच करने के अभियान की हवा निकाल दी है । विधार्थी परिषद के जितेन्द्र चैधरी एन0एस0यू0आई के प्रतिद्वन्दी से लगभग 2000 वोटों के अंतर से जीते । इसी प्रकार उपाध्यक्ष के लिए प्रिया दवास 1500 से भी ज्यादा अन्तर से जीती । सचिव के लिए नीतू देवास लगभग 5000 वाटों के अंतर से जीती । एन0एस0यू0आई को केवल सह सचिव के पद पर संतोष करना पड़ा । वहॉं भी उसका प्रत्याशी केवल 626 वोटों से जीत पाया । रिकार्ड के लिए सी0पी0एम0 की एस0एफ0आई और सी0पी0आई0 की ए0आई0एस0एफ0 भी चुनाव लड़ रही थी परन्तु मतदाताओं ने उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया । इन चुनावों के माध्यम से देश की युवा पीढ़ी ने यह स्पष्ट संदेश तो दे ही दिया है कि मैनजमैट गुरू अपनी रणनीतियों से कारपोरेट घरानों में तो उठा पठक कर सकते हैं । कुछ देर के लिए मीडिया की मदद से किसी के नेता होने का भ्रम भी पैदा कर सकते है। लेकिन राहुल गांधी को वे अपनी रणनीतियों से युवा नायक स्थापित नहीं कर सकते । क्योंकि युवा नायक होने का अर्थ है देश की मिट्टी में मिट्टी होना, देश के सांस्कृतिक रंग में सराबोर होना, संघर्ष के रहे युवा वर्ग की पीढ़ा को केवल जानना ही नहीं बल्कि उसे अपने ह्रदय के भीतर अनुभव करना । ध्यान रहे इस देश के युवा नायक खेत खलिहानों से निकलते हैं राज परिवारों से नहीं । मैनजमैंट गुरू राहुल गांधी के रूप में यही करना चाहते थे लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनावों ने इसका करारा जवाब भी दे दिया है , और मैनजमेंट गुरूओं को उनकी औकात भी बता दी है।

Thursday, September 2, 2010

आतंकवाद तो पहले ही काला है, इसे किसी और रंग में न रंगें

केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने आतंकवाद को ‘भगवा’ रंग से जोड़कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। जब जरूरत आतंकवाद से निपटने के उपायों को पुख्ता बनाने की और इसके विरोध में एक साथ खड़े होने की है तो गृहमंत्री शायद इसमें व्यस्त रहे कि पहले आतंकवाद का ‘प्रतीक रंग’ तय कर दिया जाए। पिछले सप्ताह नई दिल्ली में राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और पुलिस महानिरीक्षकों के तीन दिवसीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कह दिया कि हाल ही में हुए कई बम विस्फोटों से ‘भगवा आतंकवाद’ का नया स्वरूप सामने आया है। चिदम्बरम ने यह बात कह कर साम्प्रदायिक सौहाद्र्र कायम रखने के अपने ही सरकार के वादे को तोड़ने का प्रयास तो किया ही साथ ही अपनी पार्टी और सरकार को भी मुश्किल में डाल दिया। चिदम्बरम के इस बयान का विरोध सिर्फ विपक्ष ने ही नहीं बल्कि खुद उनकी पार्टी ने भी किया है। कांग्रेस ने साफ किया है कि आतंकवाद को भगवा रंग से जोड़ा जाना सही नहीं है क्योंकि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता है।
यह आश्चर्यजनक है कि चिदम्बरम की यह टिप्पणी उसी सम्मेलन में आई जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश की आंतरिक सुरक्षा और एकता के समक्ष विभिन्न प्रकार की चुनौतियों पर चिंता जताई थी। यह अपने आप में बड़ा विरोधाभास नहीं तो और क्या है कि प्रधानमंत्री तो अमन चैन कायम रखने पर जोर दें और गृहमंत्री ऐसा बयान दे डालें जिससे समुदायों के बीच खाई पैदा हो या फिर किसी समुदाय को हेय दृष्टि से देखा जाए। आतंकवाद को भगवा रंग से जोड़ने के चिदम्बरम के बयान को बतौर गृहमंत्री उनकी तीसरी बड़ी गलती भी कहा जा सकता है। इससे पहले वह पिछले वर्ष तेलंगाना मुद्दे पर जल्दबाजी दिखा कर केंद्र और राज्य सरकार के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर चुके थे। दूसरी गलती उन्होंने खुद नक्सलियों से निपटने में रणनीतिक विफलता की स्वीकारते हुए प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफा देने का प्रस्ताव पेश किया था। और अब तीसरी गलती जो उन्होंने की है उस पर भी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। अपने इस बयान से चिदम्बरम जहां समूचे संघ परिवार के निशाने पर आ गए हैं वहीं हिन्दू संगठनों को घेरने का बहाना ढूंढने वालों को एक ‘बढ़िया’ मौका मिल गया है।
जरा ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी की टाइमिंग देखिये। अगले माह संभवतः दूसरे सप्ताह में अयोध्या विवाद पर अदालत अपना फैसला सुना सकती है तो उसी माह चैथे सप्ताह के अंत में या फिर अक्तूबर की शुरुआत में बिहार में विधानसभा के चुनाव होने हैं। अयोध्या में रामजन्मभूमि पर राम मंदिर की मांग सीधे संघ परिवार और भाजपा से जुड़ी है तो बिहार में चुनावों पर भाजपा का काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है क्योंकि वह वहां सत्तारुढ़ गठबंधन में है। बिहार में जाहिर है चिदम्बरम की उक्त टिप्पणी से राजनीतिक गर्मी पैदा होगी। वहां कांग्रेस अपने आप को खड़ा करने के लिए मुख्य रूप से मुस्लिम मतों की ओर ताक रही है। साथ ही चिदम्बरम की इस टिप्पणी से वहां भाजपा के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी होंगी क्योंकि उसे एक तो खुद अपनी सहयोगी जद-यू से जूझना होगा जोकि सीटों के बंटवारे और नरेंद्र मोदी को बिहार में प्रचार के लिए नहीं आने देने को लेकर उस पर पहले से ही दबाव बनाए हुए है। दूसरा भाजपा को वहां इस मुद्दे पर विपक्ष के हमलों को भी झेलना होगा। लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख रामविलास पासवान और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने तो हिन्दू संगठनों पर पाबंदी लगाने की मांग कर ‘भगवा आतंकवाद’ को चुनावी मुद्दा बनाने के प्रबल संकेत भी दे दिए हैं। जाहिर है बिहार विधानसभा चुनावों की सरगर्मी बढ़ाने का काम गृहमंत्री की टिप्पणी ने भलीभांति कर दिया है।
लेकिन हमारे नेतागण शायद भूल रहे हैं कि आतंकवाद तो मुद्दा बन सकता है लेकिन आतंकवाद को कोई रंग देना या उसे किसी धर्म अथवा वर्ग विशेष से जोड़ना मुद्दा नहीं बन सकता। जब लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अफजल गुरु को चुनावी मुद्दा बनाया था तो इसे एक खास समुदाय के विरोध के तौर पर देखा गया लेकिन जनता ने इस मुद्दे की हवा निकाल दी। अब ऐसा ही कुछ ‘भगवा आतंकवाद’ के मुद्दे का भी हश्र हो सकता है। वैसे बात यहां इन मुद्दों के राजनीतिक हश्र होने अथवा नहीं होने की नहीं है, बात यह है कि इस बयान से हिन्दुओं की आस्था को चोट पहुंची है। हर हिन्दू संघी अथवा भाजपाई तो है नहीं, जो इसे राजनीतिक ‘तीर’ मान कर सह जाए और वार करने की अपनी बारी का इंतजार करे। आम लोगों के लिए धर्म राजनीति से परे होता है। यह बात राजनीतिज्ञों को क्यों नहीं समझ आती?
चिदम्बरम की छवि कुशल प्रशासक की रही है इसलिए ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी उनकी टिप्पणी पर हैरत होती है। उन जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ को यह पता होना चाहिए कि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता। हरा, नीला, भगवा, गुलाबी आदि रंगों से आतंकवाद को नहीं जोड़ा जा सकता। यदि आतंकवाद से किसी रंग को जोड़ने की बाध्यता ही है तो उसे काले रंग से जोड़ दें क्योंकि आतंकवाद जहां भी कहर बरपाता है वहां सिर्फ काला अध्याय ही छोड़ता है। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी करते समय चिदम्बरम के जेहन में क्यों सिर्फ साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और देवेंद्र गुप्ता के ही नाम आए? वह क्यों भूल गए पुणे धमाके के आरोपियों यासीन भटकल, रियाज भटकल और बंगलुरु धमाके के आरोपी मदनी को? यही नहीं गत सप्ताह कनाडा की पुलिस ने वहां की संसद को उड़ाने की साजिश का पर्दाफाश करते हुए जिन लोगों को पकड़ा है उनमें एक भारतीय भी है जिसका नाम है मिसबाहुद्दीन अहमद। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन नामों से उनके धर्मों को जोड़ना का मेरा अभिप्राय नहीं है। ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए। यह सभी उक्त लोग यदि आतंकवादी कृत्यों में शामिल हैं तो इन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए। लेकिन यह गलत होगा कि राजनीतिक अथवा अन्य कारणों से इन लोगों के चलते किसी धर्म विशेष पर निशाना साधा जाए या उसे कठघरे में खड़ा कर दिया जाए।
अमेरिका में 9/11 के बाद विश्व भर में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द चल निकला। यह शब्द उतना ही गलत है जितना कि ‘भगवा आतंकवाद’। ‘इस्लामिक आतंकवाद’, ‘भगवाकरण’, ‘भगवा आतंकवाद’ और ‘भगवा उत्पाती’ सही शब्द नहीं हैं। इनके प्रयोग से बचना चाहिए। आतंकवाद को किसी भी धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि आतंकवाद तथा आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। यदि वह लोग धर्म की दुहाई देकर अपने कार्यों को अंजाम देते हैं तो उस धर्म का उनसे बड़ा दुश्मन कोई नहीं है। क्योंकि एकाध लोगों की वजह से पूरे समुदाय को बदनाम होना पड़ता है। ऐसा ही कुछ ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी के बाद देखने को मिल रहा है।
इसके अलावा चिदम्बरम तथा अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता यह क्यों मान कर चल रहे हैं कि सारे हिन्दू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अथवा भाजपा से जुड़े हुए हैं और उन्हें निशाने पर लेने से सीधे भाजपा पर निशाना सध जाएगा? इसी प्रकार सभी हिन्दू संगठनों को भाजपा से जुड़ा हुआ कैसे मान लिया जाता है? जब मंगलौर में श्रीराम सेना ने वेलेंटाइन डे के विरोध में युवाओं को पीटा तो भाजपा पर राजनीतिक हमले हुए जबकि उस संगठन से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा ही गोवा के मरगांव विस्फोट मामले में संदेह के घेरे में आए अभिनव भारत और सनातन संस्था के मामले में भी भाजपा पर निशाना साधा गया जबकि खबरों के अनुसार, अभिनव भारत के लोगों से पूछताछ में यह पता चला था कि उनकी योजना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत की हत्या करने की भी थी। ऐसे में इस संगठन को कैसे भाजपा के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है? यह सही है कि भारत में भी कुछ कट्टरपंथी संगठन उभर रहे हैं जो हिंसा को माध्यम बना कर लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। लेकिन हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए कि वह संगठन हिन्दू हैं या मुसलमान या फिर कोई और। इनकी पहचान एकमात्र जिहादी संगठन के रूप में ही की जानी चाहिए।
भगवा रंग को आतंकवाद से जोड़ना एक प्रकार से हमारे राष्ट्रीय ध्वज का भी अपमान है जिसके तीन रंगों में से एक रंग भगवा अथवा केसरिया भी है। जो भगवा रंग जीवन के लिए महत्वपूर्ण सूर्योदय, अग्नि सहित भारतीय संस्कृति का भी प्रतीक है, उसे आतंकवाद के साथ यदि ‘राजनीतिक स्वार्थवश’ जोड़ा गया है तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति कोई और नहीं हो सकती।
जहां छोटे से छोटे मुद्दे को लेकर राजनीति होती है, वहां ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पर राजनीति कैसे नहीं होती। संसद में इस मुद्दे पर हुए हंगामे से यह साफ हो गया कि ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पकड़कर शीघ्र ही कई दल मुस्लिमों के बीच अपना वोट बैंक मजबूत करने के प्रयास करते दिखाई देंगे। यह कैसी विकट और विचित्र स्थिति है कि हमारे राजनीतिक दल यह मानकर चलते हैं कि ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द के प्रचार से मुस्लिम प्रसन्न होंगे। उन्हें यह पता होना चाहिए कि मुस्लिम भी जितने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के खिलाफ हैं उतने ही ‘भगवा आतंकवाद’ के भी। कई मुस्लिम सांसदों और विद्वानों ने ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पर आपत्ति जताई है। इसके अलावा देश में हुए विभिन्न विस्फोटों के बाद मुस्लिम समुदाय ने जिस प्रकार आतंकवाद के खिलाफ विरोध प्रकट कर देश की एकता बनाए रखने की बात कही, उसे किसी को भूलना नहीं चाहिए। लेकिन मुश्किल भरी बात यह है कि क्षुद्र राजनीति करने वाले दलों को सभी के ‘ब्रेन वाश’ की कला आती है जिसके बल पर वह राज करते रहे हैं।
बहरहाल, यदि चिदम्बरम हिन्दुओं की छवि कट्टरवादी की बनाना चाह रहे हैं, तो यही कहा जा सकता है कि वह गलत राह पर हैं। ‘भगवा आतंकवाद’ की बात कह कर उन्होंने सीमापार आतंकवाद, कश्मीर के बिगड़ते हालात, माओवादियों, नक्सलियों का बढ़ता आतंक, पूर्वोत्तर में उग्रवाद आदि गंभीर मुद्दों को बौना बनाने का प्रयास किया है। जो लोग कहते हैं हि ‘बांटो और राज करो’ की नीति अंग्रेजों के जमाने में थी वह गलत हैं क्योंकि यह किसी न किसी रूप में आज भी भारत में जारी है।

--sumit kumar

Tuesday, August 31, 2010

KYA HUM AJAAD BHARAT KE NAGRIK HAIN

भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी, ईसाई और वामपंथी आतंकवाद के सामने ‘भगवा आतंक’ का शिगूफा कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार चिदम्बरम और दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।

ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर चलकर ये लोग अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार हिन्दू संस्थाओं से जोड़ रहे हैं। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र और सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।

सच तो यह है कि आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते और गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं।

हिन्दू चिंतन में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्तो और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे ‘भगवा आतंक’ कहा जा रहा है।

कांग्रेस वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या विश्व हिन्दू परिषद और लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।

संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्तिपूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।

मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुध्द एवं प्रभावी लोगों को भी बुलाया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।

संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध ि‍(जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्राय: हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।

सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।

दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी कम्यूनिस्ट; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।

हिन्दू संगठनों की प्रेरणा हिन्दू धर्मग्रन्थ ही होते हैं; और किसी धर्मग्रन्थ में निरपराध लोगों की हत्या करने को नहीं कहा गया हैं। हां, अत्याचारी का वध जरूर होना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता का तो यही संदेश है; लेकिन दूसरी ओर इस्लाम, ईसाई या कम्युनिस्टों के मजहबी ग्रन्थों में अपने विरोधी को किसी भी तरह से मारना उचित कहा गया है। विश्‍व भर में फैली मजहबी हिंसा का कारण यही किताबें हैं। अधिकांश लोग इन्हें गलती से धर्मग्रन्थ कह देते हैं, जबकि ये मजहबी किताबें हैं।

संघ और वि.हि.परिषद का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है; और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बांटा और अब अगले बंटवारे के षडयन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।

इसलिए भगवा आतंक का शिगूफा केवल और केवल एक षड्यंत्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब भगवा आतंक का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यंत्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।

ram janam bhoomi a history

बाबर कोई मसीहा नहीं अत्याचारी, अनाचारी, आक्रमणकारी और इस देश के निवासियों का हत्यारा

सितम्बर में अयोध्या (अयुध्या, जहां कभी युद्ध न हो) के विवादित परिसर (श्रीराम जन्मभूमि ) के मालिकाना हक के संबंध में न्यायालय का फैसला आना है। जिस पर चारो और बहस छिड़ी है। फैसला हिन्दुओं के हित में आना चाहिए क्योंकि यहां राम का जन्म हुआ था। वर्षों से यहां रामलला का भव्य मंदिर था, जिसे आक्रांता बाबर ने जमींदोज कर दिया था। एक वर्ग चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि निर्णय मुसलमानों के पक्ष में होना चाहिए, क्योंकि वे बेचारे हैं, अल्पसंख्यक हैं। उनकी आस्थाएं हिन्दुओं की आस्थाओं से अधिक महत्व की हैं। मुझे इस वर्ग की सोच पर आश्चर्य होता है। कैसे एक विदेशी क्रूर आक्रमणकारी का मकबरा बने इसके लिए सिर पीट रहे हैं। एक बड़ा सवाल है – क्या अत्याचारियों की पूजा भी होनी चाहिए? क्या उनके स्मारकों के लिए अच्छे लोगों के स्मारक को तोड़ देना चाहिए? (कथित बाबरी मस्जिद रामलला के मंदिर को तोड़कर बनाई गई है।), क्या लोगों की हत्या करने वाला भी किसी विशेष वर्ग का आदर्श हो सकता है? (बुरे लोगों का आदर्श बुरा हो सकता है, लेकिन अच्छे लोगों का नहीं। रावण प्रकांड पंडित था, लेकिन बहुसंख्यक हिन्दु समाज का आदर्श नहीं। कंस बहुत शक्तिशाली था, लेकिन कभी हिंदुओं का सिरोधार्य नहीं रहा। हिन्दुओं ने कभी अत्याचारियों के मंदिर या प्रतीकों के निर्माण की मांग नहीं की है। फिर एक अत्याचारी और विदेशी का मकबरा इस देश में क्यों बनना चाहिए? क्यों एक वर्ग विशेष इसके लिए सिर पटक-पटक कर रो रहा है।)

इतिहास-बोध और राष्ट्रभावना का अभाव

काबुल-गांधार देश, वर्तमान अफगानिस्तान की राजधानी है। १० वीं शताब्दी के अंत तक गांधार और पश्चिमी पंजाब पर लाहौर के हिन्दूशाही राजवंश का राज था। सन् ९९० ईसवी के लगभग काबुल पर मुस्लिम तुर्कों का अधिकार हो गया। काबुल को अपना आधार बनाकर महमूद गजनवी ने बार-बार भारत पर आक्रमण किए। १६ वीं शताब्दी के शुरू में मध्य एशिया के छोटे से राज्य फरगना के मुगल (मंगोल) शासक बाबर ने काबुल पर अधिकार जमा लिया। वहां से वह हिन्दुस्तान की ओर बढ़ा और १५२६ में पानीपत की पहली लड़ाई विजयी होकर दिल्ली का मालिक बन गया। परन्तु उसका दिल दिल्ली में नहीं लगा। वही १५३० में मर गया। उसका शव काबुल में दफनाया गया। इसलिए उसका मकबरा वहीं है।

बलराज मधोक ने अपनी पुस्तक ‘जिन्दगी का सफर-२, स्वतंत्र भारत की राजनीति का संक्रमण काल’ में उल्लेख किया है कि वह अगस्त १९६४ में काबुल यात्रा पर गए। वहां उन्होंने ऐतिहासिक महत्व के स्थान देखे। संग्रहालयों में शिव-पार्वती, राम, बुद्ध आदि हिन्दू देवी-देवताओं और महापुरुषों की पुरानी पत्थर की मूर्तियां देखीं। इसके अलावा उन्होंने काबुल स्थित बाबर का मकबरा देखा। मकबरा ऊंची दीवार से घिरे एक बड़े आहते में स्थित था। परन्तु दीवार और मकबरा की हालत खस्ता थी। इसके ईदगिर्द न सुन्दर मैदान था और न फूलों की क्यारियां। यह देख बलराज मधोक ने मकबरा की देखभाल करने वाले एक अफगान कर्मचारी से पूछा कि इसके रखरखाव पर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया जाता? उसका उत्तर सुनकर बलराज मधोक अवाक् रह गए और शायद आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएं। उसने मधोक को अंग्रेजी में जवाब दिया था – “Damned foreigner why should we maintain his mausaleum.” अर्थात् कुत्सित विदेशी विदेशी के मकबरे का रखरखाव हम क्यों करें?

काबुल में वह वास्तव में विदेशी ही था। उसने फरगना से आकर काबुल पर अधिकार कर लिया था। परन्तु कैसी विडम्बना है कि जिसे काबुल वाले विदेशी मानते हैं उसे हिन्दुस्तानी के सत्ताधारी और कुछ पथभ्रष्ट बुद्धिजीवी हीरो मानत हैं और उसके द्वारा श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर तोड़कर बनाई गई कथित बाबरी मस्जिद को बनाए रखने में अपना बड़प्पन मानते हैं। इसका मूल कारण उनमें इतिहास-बोध और राष्ट्रभावना का अभाव होना है।

लगातार बाबर के वंशजों के निशाने पर रही जन्मभूमि :

पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गुट लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद ने पिछले कुछ वर्षों में करीब आठ बार रामलला के अस्थाई मंदिर पर हमले की योजना बनाई, जिन्हें नाकाम कर दिया गया। ५ जुलाई २००५ को तो छह आतंकवादी मंदिर के गर्भगृह तक पहुंच गए थे। जिन्हें सुरक्षा बलों ने मार गिराया।

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